शनिवार, 25 दिसंबर 2010

रात की बात


धुंधियाए आकाश के आईने में
चाँद उदास दिखता है

अंधेरों से दामन छुड़ा कर
रात ने छिटकी तारों जड़ी चूनर
सुखाने डाल दी आकाश की अलगनी पर

यादों के मिटने का वक़्त है
रात के साये
चाँद के मफलर से लिपटे
उदासी के रंग को गहरा कर रहे

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

एक और भीष्म


बेशक चुप हो जाना
हार जाना नहीं है
मगर चुप्पियाँ
किनारे बैठ कर तमाशा देखने का बोध है

कंठ की विवशताएँ
शब्दहन्ता बनती हैं
हवाओं में एक और भीष्म
जबडाता चला जाता है

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

रात की कहानी


रात के चेहरे पर
रोशनी की लकीर खींचते से
आ लगे किनारे तुम्हारे ख़याल

आकाश की जाजम पर
होने लगी चाँद की ताजपोशी
तारों की जयकार घुटने लगी
एक पुरानी नदी यादों की
उत्तर से दक्षिण
दूर तक पसरती चली गई

सूरज के रखवाले ने जब खोले द्वार
आँसुओं के निशान छिपाने लगे
फूलों पर बिखरे पद-चिह्न अपने

रात की कहानी
एक उम्र सी गुजरती है
हर रात

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

चित्तौड़


इन पत्थरों की
बुझी नहीं है अभी आग
दर्प का लेप
दरक भले ही गया हो
दिपदिपाता अब भी वहीं है

शताब्दियों की दंतकथाएँ
हर चट्टान हे चेहरे पर
साक्षीत्व के हस्ताक्षर हैं

भूगोल की भींत पर
फड बांचता पुरखों की
मत्स्य-रूपा पठार का भोपा

रक्त के खंडहर हैं ये
जिनको छूते ही
शिराओं के थोथले जाले
लाल हो उठते हैं

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

मन में इन्द्रधनुष


मैंने मन के तहखानों को खंगाला
दीवारों पर एक इन्द्रधनुष संवारा
अंधेरों को बुहार कर कुछ जगह निकाली

बाहर हंसती हवा का एक झौंका
बगल में गुच्छा लिये फूलों का
मुस्कुराता खड़ा था

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

तुम्हारी खूबसूरती



बासनों की रगड़ी मिट्टी की सुगंध से
जो लोग बैठे हैं बहुत दूर
देर रात तक कानों में
उतरती पाजेबों की छनक छाए रहती है

तुम्हारी खूबसूरती कितना मायने रखती है
उनके लिए
जिनके तकिये के दोनों किनारे
हर सुबह
दो ओस की बूँदें टंगी मिलती है

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

जो रोशनी दे


हम सबने
अपने अपने परमात्माओं को पुकारा
हमें रास्ता दिखाओ
हम भटके हुए हैं
पर दिशाओं ने
चुप्पी की चादर ओढ़ ली
कोई नहीं आया

इतने में सूरज के दरीचे खुले
रोशनी के रास्ते पिघले
और हम सब
अपने अपने
घरों को चल दिये

शनिवार, 4 सितंबर 2010

साँवली घटाएँ हैं


फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं l


कि तेरे गेसुओं की बावली बलाएँ हैं l


तपती धरती रूठ गयी तो बरखा फिर


बरसी कि जैसे आकाश की अदाएँ हैं l


ऊपर से सब भीगा भीतर सूख चला


न जाने कौन से मौसम की हवाएँ हैं l


पिघल के रहती हैं ये आखिर घटाएँ


बिखरे दूर तक जब प्यास की सदाएँ हैं l


फूल पत्तियाँ देहरी आँगन चौबारे


चाँद से उतरी फरिश्तों की दुआएँ हैं l

रविवार, 15 अगस्त 2010

नदी


आस्था के पुष्पों

और मुर्दों ने तुझे लील लिया

बाज़ार के टापू धड़धड़ाते रहे

सीने पर तेरे

पर्वतों की कृपणता ने तुझे कील लिया

पुरानी तस्वीरों और स्मृतियों के घेरे

तुझे आकाशगंगा बना देंगे

पद-चिह्नों की धूल

चकाचौंध में दुबक तमाम हो रही


कुछ उजले हाथ अपर्याप्त हैं

ये ध्वजाएँ बहुत थोड़ी हैं

भीड़ के भेजे में कौन उकेरे

तेरे दर्दनाक हादसों की टीस


उपाधियों और नामकरणों की

इस समूची पीढ़ी की पैदावार छोड़िये

उन टापुओं की मोहिनी माया

पेट को रोटी दे न दे

वंशजों के वृक्ष को मट्ठा अवश्य देगी l


मंगलवार, 3 अगस्त 2010

भाषा के सवाल पर

भाषा को जुलूस की शक्ल देना
कंठ की विवशता ही तो है
वरना शब्दों के विज्ञापन
श्लीलता की सीमा के बाहर की चीज़ है

माँ के गर्भ में मिले शब्द
जब घुटन महसूसने लगे
तो समझिये
एक भाषा के गर्भपात का षड्यंत्र जारी है

उनकी अपनी धरोहरें हैं
इन्हीं शब्दों के संग्रहालयों में सजी
इस बहाने देखिएगा ये सभी
संस्कृति के शवदाह-गृह में बदल जाएँगे

अपनी माटी की सुगंध सनातन होती है
अक्षरों के बीज जब मौसम छीन लेगा
गूंगी फसलें बांझपन की
हवाओं में शब्दों के अभिशाप देखेंगी

यह एक विचित्र कथा-यात्रा है
करोड़ों कंठों की जाजम धरने पर बैठी है
इनके पृष्ठ फडफडा रहे हैं ..देर से
एक दलदल है
जिसने इस विवशता को संगीन समझा है

बुधवार, 28 जुलाई 2010

कविता और रोहिडे का फूल

कविता
एक रोहिड़े का फूल है
गर्मियाँ कसमसाती हैं
भीतर कहीं गहरे तो
रोहिड़ा सुर्ख़ सा सिर तान
धरा पर कौंध उठता है

आस पास जब
सारी निशानियों के पर उतर जाते हैं
अस्तित्वों के ढूह
शुष्क और बंजर नज़र आते हैं
न मालूम
कहाँ से शेष बची कुछ लालिमा को
यत्न से निथारकर
रोहिड़ा
तड़पती प्रेमिका की धरती पर
प्रेम के दो फूल टांक देता है

रोहिड़े का यह फूल
मेरी कविता है

हवा की बेचैनियाँ
जब करवट बदलती हैं
ठन्डे आकाश की बाँहों में
अंगड़ाई लेने लगती है जब
बादलों की तप्त अभिलाषाएँ
झुलसती आँख में आँसू सी
कविता मुस्कुराती है
ठीक वैसे ही
धरती की पथराई प्यास के सीने पर
धर कर अपने पाँव
उगते सूरज का मुखौटा पहन
गर्मियों की भीड़ में एक अकेला
रोहिड़ा ही है
जो कविता की तरह
रेत के चेहरे पर छप जाता है ।

रविवार, 18 जुलाई 2010

अन्नदाता हैं हमारे

सहते रहो पीठ पर
लातों के सन्नाटेदार चाबुक
अन्नदाता हैं हमारे

ये अमिट स्याही नहीं
कलंक है लोकतंत्र की उँगलियों पर
यही द्रोणाचार्य फिर
उखाड़ेंगे उँगलियों से नाखून
तुम्हें तुम्हारी शताब्दियों पुरानी
सहिष्णुता की कसम
उफ़ तक न करना

मिट्टी की कोख से जन्मे
लौंदे हो तुम
अपने आकार को तरसते रहो
तालियाँ पीटो
उनकी रंगीन आकृतियाँ देखकर
इस मिट्टी में यकायक
दरार नहीं हो सकती कभी
तीव्र गर्जन तर्जन के साथ
पाँवों में तुम्हारे
कंठ तक पहुँची
शिक्षाओं का धुआँ अटका है
कंठ में तुम्हारे
शिखर तक लगी
बेड़ियों के स्वर झूलते हैं

महाशयों की पताकाएँ हैं वो
दंडवत हो जाओ
होठों को बुझाने से बेहतर
सलीका नहीं जीने का

ये मजबूत कन्धों की जमात
तुम्हें भी ढो लेगी
अन्नदाता हो हमारे

शनिवार, 10 जुलाई 2010

ले धूप खिला


ओ सूरज

ले धूप खिला !


चाँद का कन्धा थपथपा

हल्के - हल्के कर विदा

हवाओं को उजला अहसास करा

ले धूप खिला

बच्चों के बस्तों में भर दे

मुस्कुराहट की चासनी के शक्करपारे

बड़ों की भीड़ का बोझ हटा

ले धूप खिला

धरती सूख न जाए

बादलों को मनुहारें आ

इस दर को दूर कर

पानी को पाप से बचा

ले धूप खिला


लड़कियों के दुपट्टों की

दूर कर सारी सलवटें

उम्र के माने बता

ले धूप खिला

मंदिर की अँधेरी छाया को

बच्चों की मुट्ठियों से दूर रख

वहाँ दो पेड़ लगा

ले धूप खिला


शहर की गलियाँ

सहेजन की फलियाँ

एक सी दिखें

कुछ यंत्र सुझा

ले धूप खिला

ओ सूरज

ले धूप खिला !

शनिवार, 3 जुलाई 2010

ग़ज़ल




हँसते तारे गाता चाँद ।


देखा है मुस्काता चाँद ।




प्रेम संदेशा ले मेरा


तेरी गलियाँ जाता चाँद ।




कितना रोए ख़त पढ़कर

आकर मुझे बताता चाँद ।




उसके जैसा दिखता तू


सुन - सुन कर शरमाता चाँद ।




चटख चाँदनी चूम चला


बहका सा मदमाता चाँद ।




सूंघ हवाएँ धरती की


चिंता से घबराता चाँद ।




छोड़ अकेला जाओगे


इक दिन,मुझे पता था चाँद ।

रविवार, 27 जून 2010

नमी कायम है


सब अपनी अपनी लय में गाते हैं

तुम भी गाओ

यह गीत

अलापो चाहे

या फिर टेक लो

साज सजे तो सजाओ

लेकिन इस गीत को गाओ

उगे हों भले ही

कंठ में

शूलों के बाड़े

या फिर रोप जाता हो कोई

रेत रंगे आकाश में

अँधेरे की

पंखों वाली कीड़ियों के बीज

सुर ताल के

इस अकाल में भी

शब्दों की नमी

अभी कायम है बराबर

तुम अपनी जड़ों से

पूछकर देखो

दो एक पुरानी धुनें

बची होंगी अवश्य

उन्हीं को सींचो

सींचकर साधो

बहुत बासी नहीं हुआ अभी

ये गीत जीवन का ।

मंगलवार, 22 जून 2010

ऊँट के प्रति


हजारों साल बीते

तेरी एक आह तक

सुनी नहीं हमने

न जाने कितने घावों को

अपनी गर्दन पे झेला

कितने 'चंद' कवियों के विरुद सुने

अगणित प्यासों से

अपनी कूबड़ सजाई

रेत के कितने घाव भरे होंगे

तेरे इन जाजमी पाँवों में ।


तू रोया नहीं शायद सदियों से

इन आँखों में देखे हैं

उमड़ते आँसुओं के बादल

रो ले अगर तू एक बार साथी

इन बादलों का बोझ हल्का हो

क्यों धरा - सा

धीर धारा है तूने ।


सँवारा जाता है

सजाया जाता है तू

बेगानों की भीड़ में

बरसती तालियाँ तुझ पर

कलेजे पर मगर मरहम

लगाकर कौन पुचकारा ?


अकालों के चन्दन

तेरे माथे पे फबते हैं

कराहों के ककहरे

मगर सीखे नहीं अब तक

तू धन्य रे भागी

मायड़ का मान रखें कैसे

सीखे तो कोई तुझसे सीखे

सदियों सूर-सा विचरा

फलेंगी शुभकामनाएँ भी

निर्मल ह्रदय का प्रार्थी है तू

कि सच्चा सारथी है तू

मगर अब ..

थका -थका सा दिखता है तू

थमा-थमा सा नज़र आता है

रेत के इस अविरल प्रवाह में

हकबका सा नज़र आता है ।


ले आ !

सजाऊं गोरबंद तुझ पर

गले में दाल दूँ भुज -माला
कि मुझसे बेहतर कौन

समझे जो तेरी पीड़ को साथी !

शुक्रवार, 18 जून 2010

सांझ


छिपते - छिपाते सांझ आ गई

किरणों ने आख़िरी बार चूमा

मंदिर के शिखर को

और सीढ़ियाँ उतर गईं ।


गाँव भर का धुआँ

धान की धुन में रमा

रोटियों की चटर- पटर से

घर - घर में कोलाहल

चाँद ने पोखर से पूछा

अपनी सूरत निहार लूँ !


धीरे - धीरे चाँद ने

पथ बुहार दिए

अभिसारिकाओं के

अँधेरे ने देखा लजाती सांझ को

और मुस्काने लगा

होंठ काटती सांझ

समा गई चुपके से

अँधेरे की भुजाओं में ।


आकाश से परियों का टोला उतरा

पूरे गाँव में पसर गया।

सोमवार, 31 मई 2010

बादल


बादल !

तुम एक आस का टुकड़ा हो

मन मारी मरुधरा के लिये

जैसे सदियाँ बीत गई हों

लू से लोहा लेते

आँधियों से अंधियाते

थपेड़ों से थकियाते

बादल !

तुम एक योद्धा हो

इस थार को थाम लो आकर ।


अबूझ अबोली पीड़ा इसकी

मूक दर्द के साक्षी हम हैं

पपड़ाती - सी देह झुरी - सी

शुष्क कंठ अकड़ाए - से

दीर्घ प्रतीक्षा के झूले में

श्लथ लेती प्राण - शून्य

तुझ बिन सारे सुख सूखे ।


रे बादल !

पान करा दे पौरुष अपना

इसकी उजड़ी मांग सजा

फिर फूटे सुवास गर्भ से इसके

नैनों से तृप्ति के नीर बहें

हे बादल !

तू प्रतीक है

पुरुषत्व का , पुंसत्व का ।

गुरुवार, 27 मई 2010

हम थार के पानी हैं


थार के पानी हैं हम

बहुत गहरी हैं

जड़ें हमारी

बहुत गहरी हैं

हमारी जिजीविषाएँ

पानी बहुत गहरा है

फिर भी ।


नानी ने सुनाई

पानी की कहानी

दादी ने बताई

पानी की कहानी

हम बड़े हुए

सुनते पानी की कहानी

अब समझे हैं

ये कहानी तो हमारी है

हम थार के पानी हैं ।


क्षितिज तक जाती है

हमारी बणी-ठणी

एक घडले नीर के लिए

अपने पाँवों में

दूरियों के

मोटे कड़ले पहन कर

हम अमूल्य हैं

हम थार के पानी हैं ।


पानी की सुगंध

रेत में थरपा हुआ

एक शाश्वत सत्य है

जिसकी डोर

दूर आकाश में जाती है

बादलों तक

मगर...

उसकी जड़ें बहुत गहरी है ।


बहुत झीनी है

हमारी पतवार

बहुत गहरा है

मरुथल पारावार

उतरना है पार

हम थार के पानी हैं ।

मंगलवार, 25 मई 2010

प्रेम: कुछ अहसास

बादल
अक्सर पूछते हैं
मुझसे तुम्हारा पता
और हवा बेहया - सी
उन्हें सब कुछ
बता देती है।
- - - -
मेहँदियाँ आईं
रचा डाले मेरे कोरे काग़ज़
कैसे - कैसे रंगीन , खुशबूदार
मेरा मन इतना मोरपंखी
पहले कभी न था ।
- - - -
हवाओं पर सवार होकर आईं
तुम्हारी साँसों ने
मेरे सारे पर्वत पिघला दिये
आँसुओं की नदी में
गुरूर की किश्तियाँ
डूबने लगीं.......एक - एक कर ।
- - - -
खुशबुओं ने कपड़े बदले
चाँद की अटारी जा बैठीं
मेरी छत से
तुम्हारी मुंडेर तक
रोशनी की एक
बन्दनवार बांध डाली
सूरज निकलने तक
नज़ारे बड़े हसीन दिखते थे ।

शनिवार, 22 मई 2010

नरभक्षी

बाज़ार ने बड़ा उधम मचाया
बहुत उथल-पुथल की
वो भी सरे-बाज़ार
उसकी शिकायतें की गयीं
पुलिस थाने में,पुस्तकों में
पत्रिकाओं में,मंत्रालय में
पर्चे बांटे गए,चिपकाए गए
टी.वी. पर भी
उसका कड़ा विरोध
दर्ज कराया विद्वान वक्ताओं ने
और वातावरण विरोधमय हो उठा
अब उसका बचना
मुश्किल लग रहा था
लोग कह रहे थे
बस..अब बाज़ार के दिन
समझो लद गए हैं।

पर उसका क्या जो लोगों ने
बाज़ार के गले में पट्टा बांधा
और अपने दरवाज़े पर बांध लिया
वे कहते रहे , समझाते रहे
हम इसे बांध कर रखते हैं
किसी तो काट नहीं खाएगा
वो कुत्ता बड़ा सयाना लग रहा था
दरवाज़े पर बंधे कुत्ते
बड़े सुंदर नज़र आते हैं ।

लेकिन यह कोई आम कुत्ता नहीं था
नरभक्षियों की प्रजाति का था
दिखते नहीं है नरभक्षी
मगर होते अवश्य हैं
एक बार मुँह को खून लगा कि लगा
ऐसे नरभक्षी पहले कभी नहीं देखे
न हुए होंगे

और बाज़ार एक ऐसा ही नरभक्षी कुत्ता है.

बुधवार, 19 मई 2010

पहली बार

हमने अपने गिरेबान देखे
दोस्तों की आँखों में
हिकारत देखी ,
पीछे छूट गए सारे
मासूमियत के लवाजमें
उम्र का ऐसा असर
पहली बार देखा है।

तुमने अपनी शोखियाँ देखीं
दोस्तों की आँखों में
न जाने क्या देखा
सुनहरी पंख सारे
सिमटकर स्याह हो गए
उम्र का ऐसा असर
पहली बार देखा है।

रविवार, 16 मई 2010

जब से वो मशहूर हो गए ।
ख़ुद से कितना दूर हो गए ।

बाहर इतनी चमक बिखेरी
भीतर से बेनूर हो गए ।

देखा जिनको सजदे में था
इश्क हुआ मगरूर हो गए ।

घिन से चेहरे मुफ़लिसी के
दौलत आई हूर हो गए ।

ख़ुद को देखें आँख पराई
दुनिया के दस्तूर हो गए ।

शुक्रवार, 14 मई 2010

प्राणों का हवन

विरह ऐसा सघन हुआ है।
पतझर-सा मधुबन हुआ है।

अंतर्मन को भेद व्यथाएँ
विकल पोर निर्झर-पीड़ाएँ
सुप्त हुई सौरभ-क्रीड़ाएँ

प्रेम-निशा का स्वप्न मधुरम
वेदनामय रुदन हुआ है।

पल मखमल के कब के छूटे
स्पर्श रेशमी जबसे रूठे
सांस बावरी टूट,न टूटे

प्रेम-पंथ की यज्ञशाला
प्राण का यूँ हवन हुआ है।

बुधवार, 12 मई 2010

लड़कियाँ

लड़कियाँ प्रतीक्षा करती हैं
अँधेरे की
क्योंकि कई बार उन्हें
रोशनी से चिढ़ होने लगती है
उनके सपने
इतने महीन हैं
इतने रेशमी हैं
और बिलकुल लड़कियों जैसे
कि रोशनी का एक ही दंड
उन्हें चकनाचूर कर दे

अँधेरे में लडकियाँ
घर से बाहर नहीं निकलती हैं
बल्कि छत के कोने से
कुछ तारों को समेट कर
अपने बालों में टाँक लेती हैं
और बना देती हैं
खाली आसमान पर
एक रंगों भरा सुंदर चित्र

धूप में लड़कियों के चेहरे को
चिपचिपा कर देती है भीड़
जिसे रात में धोकर
आईने में उड़ेल देती हैं वो
खुद को पूरा
लेकिन रात में भी
कुछ लोगों की आँखें
चमकती हैं कुत्तों और भेड़ियों की तरह

जब से लडकियाँ विज्ञापनों में आई हैं
उनकी कीमतें बढ़ गयी हैं
हर सामान के साथ
उन्हें भी खरीदा और बेचा जाता है
अब वे मूल्यवान हैं
सो अँधेरा उनका रक्षा-कवच है

लडकियाँ प्रतीक्षा करती हैं
अँधेरे की
लेकिन उनकी चिढ़ का
कोई अंत नहीं शायद

शनिवार, 8 मई 2010

शब्द

न जाने कितनी बार
हाथ पकड़ कर तुम्हारा
तुम्हें अर्थ तक ले गया मैं
कितनी बार
तुम डूबने के डर से
धारा में उतरे ही नहीं
कितनी बार
उतरे तो
हाथ-पाँव भी मारे
पर डूब गए

तुम उलझे रहे
अभिधार्थों से व्यंग्यार्थों तक
सदा ही ठगा गया
मैं तुमसे
और छूटता गया कुछ पीछे
अनभिव्यक्त,असम्प्रेषित
सुना था..
सही सुना था
कि शब्द की सीमा होती है.

सोमवार, 3 मई 2010

स्वप्न

स्वप्न निशाचर होते हैं
इनकी किश्तियाँ
अँधेरे की
आकाशगंगाओं पे तिरतीं हैं

कुछ अँधेरा चाहिये
स्वप्न संजोने के लिये
नरम होते हैं ये,मुलायम
इनकी नरमी
अँधेरे में अधिक
महसूस की जा सकती हैं.

तमाम आकाशगंगाएँ
रीत गयी हैं अँधेरे की
और किश्तियाँ
घात पर जंग खा रही हैं.

ये अँधेरा
एकाकीपन का है
जहाँ निशाचरों के
कारवाँ निकलते हैं.

भूखे जंगल

बन्दूक के पीछे की भूख
भेद नहीं सकती
हमारे नग्नता-प्रूफ चश्मों को

हमारी भाषा और कपड़े
हमें सभ्य बनाते हैं
लेकिन
असभ्यता की हक़ीक़त
मानों दिल्ली से दूर है

भूख को बारूद बनाने की
ये भूल अपराध है
या कि
भूख ही है अपराध

बन्दूक पर बन्दूक से
और उगेंगी बंदूकें
किन्हीं जंगलों में
और हम
व्यस्त हो जाएँगे
यह सिद्ध करेंगे
कि भूखे जंगल अपराधी हैं.

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

राजस्थानी भाषा है,बोली या विभाषा नहीं

जिस भाषा का जनता के साथ जितना अधिक संपर्क होता है,उसका प्रभाव-क्षेत्र उतना ही व्यापक होता है.मध्यकाल से पूर्व दिल्ली-मेरठ क्षेत्र की बोली,खड़ी बोली ,मध्य काल में व्यापारियों ,शासन वर्ग तथा संत-फकीरों की भाषा बनी और धीरे-धीरे इसके प्रभाव-क्षेत्र में वृद्धि होती चली गई.यह भी सच है की अब तक यह बोली साहित्य का माध्यम नहीं बन सकी थी.लेकिन आगामी दो शताब्दियों में संपर्कों में हुई वृद्धि की बदौलत यह बोली हिंदी भाषा बनी और विपुल साहित्य-सृजन का माध्यम बनी। हिंदी में आधुनिक काल के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र ,जो कि वाराणसी के थे,ने खड़ी बोली हिंदी को विदेशी भाषा माना था। यहाँ विदेशी उनका आशय दूसरे क्षेत्र की भाषा रहा होगा। और आज हम देखतें हैं कि हिंदी हमारे देश की राष्ट्र -भाषा बन गयी है। यह समूचा विकास दो सौ वर्षों से अधिक का किस्सा नहीं है।
दूसरी और अन्य मध्ययुगीन भारतीय भाषाओँ के विकास के लगभग साथ ही राजस्थानी भाषा का प्रादुर्भाव हुआ. ५०० ई० से १००० ई० तक का समय अपभ्रंश भाषाओँ की उत्पत्ति और विकास का माना जाता है। अपभ्रंश के २७ भेदों में से गुर्जरी अपभ्रंश से राजस्थानी की उत्पत्ति मानी जाती है,जबकि हिंदी भाषा का विकास शौरसैनी अपभ्रंश से हुआ। बेशक दोनों भाषाएँ विकास की प्रक्रिया में वैदिक संस्कृत के ही निकली हैं,लेकिन मात्र लिपिगत एकरूपता के कारण राजस्थानी को हिंदी की विभाषा या बोली बताना गलत है। राजस्थानी हिंदी से अधिक पुरानी भाषा है,लेकिन भाषा-विकास की प्रक्रिया में खड़ी बोली ने शासन के केंद्र की शरण पाकर अप्रत्याशित विकास कर लिया।
राजस्थानी ने अपना पांच सौ वर्षों का साहित्य हिंदी को समर्पित किया है। हिंदी का समग्र आदिकाल राजशानी भाषा का नहीं तो और क्या है? राजस्थानी लोगों ने सदा त्याग और बलिदान के मूल्यों को महत्व दिया है। यही राजस्थानी भाषा के साथ हुआ। संविधान-निर्माण के समय श्री जमनालाल बजाज के राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करवाने के प्रयासों को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने हिंदी हित के नाम पर धता बता दिया। बिलकुल वही स्थिति आज भी देखने को मिल रही है। समझ में नहीं आता,हिंदी को राजस्थानी भाषा की मान्यता से क्या खतरा है। पंजाबी से पंजाब में ,गुजराती से गुजरात में , मराठी से महाराष्ट्र में हिंदी को क्या हानि हुई ?और अगर अपनी मातृ-भाषा के सम्मान और मान्यता के मार्ग में हिंदी को कोई क्षति होती भी है,तो हो;अव्वल तो ऐसा होगा नहीं।
गुर्जरी अपभ्रंश से निकली मरुवाणी की दो शैलियाँ -डिंगल और पिंगल ही कालांतर में साहित्यिक राजस्थानी के रूप में विकसित हुईं। इसकी उच्चारणगत विविधता वस्तुतः इसकी सम्पन्नता की ही परिचायक है। जिस तरह बूंदी के सूर्यमल्ल मिश्रण की राजस्थानी बीकानेर के पृथ्वीराज राठौर की भाषा से पृथक नहीं,ठीक उसी प्रकार कोटा के अतुल कनक की भाषा गंगानगर के मोहन आलोक की भाषा से अलग नहीं है। क्षेत्रगत प्रभाव विश्व की सभी भाषाओँ में देखे गए हैं,भले ही वह कितनी ही विकसित भाषा क्यों न हो।
राजस्थानी भाषा के आदिकाल को देखें तो उसकी कई शैलियाँ थीं जो उसकी स्वरूपगत विविधता को दर्शाती थीं। जैन शैली,संत शैली,चारण शैली, लौकिक शैली आदि राजस्थानी के विविध रूप हैं,लेकिन कोई मूलभूत अंतर नहीं है,जिसके आधार पर सबको परस्पर असम्पृक्त घोषित किया जा सके।
अस्सी प्रतिशत राजस्थानियों की मातृ-भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के मार्ग में राजस्थान के ही वे लोग खड़े हो रहे हैं,जो शायद मातृ-भाषा की अवधारणा से ही अनभिज्ञ हैं.आर्य समाजियों ने सदैव प्रादेशिक भाषाओँ का तिरस्कार किया है। वे अखंड राष्ट्र-एक भाषा की वकालत करते हैं.राजस्थानी भाषा मान्यता आन्दोलन भारत और हिंदी के प्रति विद्रोह नहीं है, अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को बचाए रखने की जुगत है। आश्चर्य...सिन्धी समाज इस मान्यता की विरोध में उतर आया है। महाराजा हनुवंत सिंह जी ने पाकिस्तान में प्रताड़ित सिंधियों को यहाँ लाकर बसाया और वे इसका सिला हमारी मातृ-भाषा का विरोध करके दे रहे है.हमने तो कभी सिन्धी का विरोध नहीं किया। सिन्धी अकादमी खुली,अच्छी बात। शिक्षा विभाग में सिन्धी तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है,अच्छी बात। राजस्थानी प्रेमी कभी सिन्धी के विरोध में खड़ा नहीं हुआ,फिर इन्हें क्या सूझी । जो अपनी मातृ-भाषा का सम्मान करना जानते हैं,वही दूसरों की मायड़ भाषा का सम्मान कर सकते हैं।
एक बात अटल मानिये,मायड़ भाषा को मान्यता का यह संघर्ष प्रतिरोधों के थपेड़ों से क्लांत नहीं होगा। जितना विरोध किसी बात का होता है,उसकी प्रबलता उतनी ही वेगवती होती है। न्यूटन का 'रिवर्स इफेक्ट 'का सिद्धांत यही कहता है। सो...विरोधियो....जय राजस्थानी।

रविवार, 25 अप्रैल 2010

पंचलड़ी

किण नै केवाँ बोल बतावां।
हिवड़ो म्हारो खोल बतावां ।

सावण आखा सूका दीसै
बिरखा रो के मोल बातावां।

खुडको व्हैसी दूरां दूर
पोलां बाजै ढोल बतावां ।

काईं गीत सुणैला कोई
बाजां रै'सी झोल बतावां ।

राज सुणै तो सुण लेवैला
बिस्र्या सगळा कोल बतावां

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

ग़ज़ल

धुएं सी रात के लब सिले-सिले से लगते हैं।
शबनमी कतरे आँख में पिघले से लगते हैं।

रात भर महकी रातरानी के निशाँ हैं ये
कलेजे के पत्थर थोड़े हिले से लगते हैं।

बोल कर बता देगी ये शाम मुझको चुपके से
दिल के आंसू आँख में निकले से लगते हैं।

चांदनी छिप-छिप के सहला रही है जज़्बात
बेकाबू हैं,साँसों के काफ़िले से लगते हैं।

तुम लाख छिपाओ तबस्सुम के तले लेकिन
होठों पे जो फैले हैं ,गिले से लगते हैं.

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

मायड़-भासा

हिंदी के प्रेमी हम भी हैं।हम भी हिंदी को राष्ट्र-भाषा मानते हैं।हिंदी हमारा ह्रदय-हार है,लेकिन जब बात राजस्थानी की आती है तो यह कहते हुए हम राजस्थानियों को तनिक भी झिझक नहीं होती कि राजस्थानी ही हमारी मायड़ भाषा है.यहाँ के जन-जन के कंठों में बसी हुई है राजस्थानी.हम राजस्थानियों के समस्त तीज-त्योंहार ,नेगचार,लोक-व्यवहार,नाच-गान आदि सब कुछ हमारी अपनी राजस्थानी के रंग में ही रंगे हुए हैं.तो फिर हम अपनी मायड़ भाषा किसे मानें.आखिर मायड़ भाषा माना किसे जाए.हिंदी को? जिसे बच्चा चार वर्ष की उम्र का होने के बाद स्कूल में जाने पर सीखता है,या उस भाषा को ,जिसे बालक माँ के गर्भ से ही सीखना शुरू कर देता है? किसे मानें?निस्संदेह जवाब राजस्थानी के पक्ष में ही होगा.
दूसरी बात,यह शंका व्यक्त की जा रही है कि राजस्थानी को मान्यता मिल जाने से हिंदी के विकास में बाधाएँ उत्पन्न होंगी .कैसे? जिस भाषा ने हिंदी को अपना स्वर्णिम युग ही भेंट कर दिया हो,वह हिंदी के विकास में रुकावट कैसे बन सकती है?मान्यता का अर्थ यह कदापि नहीं है कि राजस्थानी हिंदी से पूरी तरह किनारा कर लेंगे.हम राजस्थानियों की इस मांग में संकीर्णता का भाव नहीं है.हिंदी के प्रति किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं है.हिंदी के विकास में लगे राजस्थानी भाषा के साहित्यकारों की संख्या इस तथ्य की साक्षी है.राजस्थानी को मान्यता का प्रश्न वस्तुतः हमारी अस्मिता से जुड़ा हुआ है,पहचान को पाने का प्रयास है यह. करोड़ों लोगों की भावनाओं की उपेक्षा की जा रही है.राजस्थानी के सामने टुच्ची सी साख वाली भाषाओँ को मान्यता मिले अरसा हो गया ,लेकिन हर प्रकार से संपन्न भाषा राजस्थानी को निरंतर तिरस्कृत किया जा रहा है.वास्तव में यह हमारे राजनीतिक नेतृत्व पर भी एक प्रश्न चिह्न है.जो नेतृत्व हमारी पहचान की रक्षा नहीं कर सके,अपनी मायड़ भाषा को अपना बताते हुए जिन लोगों को शर्म आती हो,भाषा के सवाल पर जो लोग मौनी बाबा बन बैठे हों,ऐसी जमात को हमने अपनी कमान सौंपी है....दुर्भाग्य.
आस्तीन रा सांपा नै समझावै कुण
बाड़ खेत नै खावै तो बचावै कुण .

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

मायड़-भासा

झुर्रियों की परतें पड़ गयी हैं

उसके चेहरे पर

आँखों में नीम उदासी नज़र आती है

उम्र के महासागर पार किये हैं

मगर मक़ाम अभी बाक़ी है.......

उसके शब्दों में अनुभव अथाह भरा है

वाणी में अजब रवानी है

उसके गीत सतरंगी छब लिए

वातों-ख्यातों सी कहाँ कहानी है.....

मगर ....

कपूतों ने उसे बिसरा दिया है

भूल बैठे हैं

मायड़ से मिले संस्कार-संस्कृति

और बनने चले हैं

मातृ-हन्ता।

उसे सेवरा बना लीजिये

और उसके आखरों को सिरपेच

शब्दों के तीर

भावों के भाले लेकर

'मानता' के संघर्ष में कूद पड़िये।

मायड़ के अपमान का काळूंस

तुम्हें जीने नहीं देगा

और तुम्हारी पीढ़ियों का भविष्य अँधेरा होगा

हे मायड़-भासा राजस्थानी के

कपूत निजोगे राजस्थानियों !

माँ का मान सहेजो

अरे माँ है वो....मायड़।

ढाई-आखर

आंख्यां सूजी उडीकतां
इतरो काँईं गुमान होग्यो।

फेरूँ-फेरूँ बा'वड़ी
बेरण थारी ओळूँ।
मन रो मिन्दर सून पड़्यो
सूनो कुंकुंम थाळ रोळूँ।

रात रूवाणै कागला
रूसेड़ो भगवान् होग्यो ।

झालो दे'र बुलावै है
खेजड़ली रा खोख्र्या।
थारो नाम खुदेड़ो रे'सी
डूंगर खम्बा पोख्र्या।

बाटड़ली रो जोव्णों
म्हारो वेद पुराण होग्यो।

करड़ी घणी कुर्ळावै कुरजां
काट-काट नीं खावै है ।
नेह निरो'ई इतरो गै'रो
मन रा तार बजावै है ।

उतरूँ-उतरूँ डूबूँ -डूबूँ
'ढाई -आखर' ज्ञान होग्यो.

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

चांदनी जब चाँद से छिटककर

रेत पर पसर जाती है ,

रात की दुल्हन हौले-हौले

चांदी सी संवर जाती है ,

दूर दिशाओं के कानों तक

चुपके-चुपके ख़बर जाती है ,

प्रेम-संदेशा लिए हवा तब

लहराती सी गुज़र जाती है.

रविवार, 4 अप्रैल 2010

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

याद में रोशन

गुनाह कोई और कर गए होंगे।
और इल्ज़ाम मेरे सर गए होंगे।

ओढ़ कर किरणों की जो चादर आए
जगा कर बस्ती को सहर गए होंगे।

तमाम उम्र जिनके ख़्वाब नवाबी
गुज़ार कर मुफ़लिसी गुज़र गए होंगे।

हर शाम है जिनकी याद में रोशन
ख़्यालों में वो भी संवर गए होंगे।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

ऐ ज़िन्दगी मेरी तुझमें भी कुछ असर होता ।
वक़्त थोड़ा ही सही जो खुद की नज़र होता ।

मंथन किये हैं उम्र भर अमृत की आस में
जब भी हिस्सा हुआ उसके हिस्से ज़हर होता ।

बेमियादी हो गए सब बेजुबान जज़्बे
रोशनी बोलती जो चरागों में असर होता ।

जवानी भर निभाया ये दस्तूर हमने
हाथ में फूल आँख में ज़माने का डर होता ।

सीख ही जाते दुश्मनी के कायदे तमाम
घर में मेरे भी दोस्तों का जो बसर होता ।

मंगलवार, 30 मार्च 2010

नयन हो गए आज फिर सजल ।
याद वो आने लगे प्रतिपल ।

टूट के बरसा अबके सावन
सहमा-सिहरा घर का आँगन
हाल ये उनसे कह दे मन

हरिया गयी है पीर चंचल
याद वो आने लगे प्रतिपल।

प्राण वेदना विकल सघन सी
पली बढ़ी फैली है वन सी
विगत कथाएँ छाई घन सी

कठिन है कोई जाए बहल
याद वो आने लगे प्रतिपल।

सोमवार, 22 मार्च 2010

मेरे आँगन चुपके-चुपके


प्रेम जागा भोर-सा
मिट चले सारे अँधेरे ।


बौराए बन फागुन - से
मदमस्त मेरे
स्वप्न - कुञ्ज
गले - पिघले प्रतिपल
ऊष्ण श्वासों से
पाषाणी - पुंज

नशा साँझ का
खुमार बन चढ़ा सवेरे ।
प्रेम जागा भोर - सा
मिट चले सारे अँधेरे ।

मेरे आँगन चुपके - चुपके
खुसर-फुसर तुलसी लहराए
आहट उनकी सुन
मन की चिरिया पर फहराए

रूप ने उनके
डाले हृदय में डेरे ।
प्रेम जागा भोर - सा
मिट चले सारे अँधेरे ।


रविवार, 21 मार्च 2010

जीवन से अभिराम छिन रहे हैं।
मुझ से मेरे राम छिन रहे हैं।

प्रेम पगे हैं जिनसे जन मन
गोकुल वृंदा श्याम छिन रहे हैं।

भूलूं स्वयं को अपने घर में
घर के सारे काम छिन रहे हैं।

बाजारों की चमक दमक में
तीरथ गंगा धाम छिन रहे हैं।

रोम-रोम में रमने वाले
हे! मेरे भगवान् छिन रहे हैं.