छिपते - छिपाते सांझ आ गई
किरणों ने आख़िरी बार चूमा
मंदिर के शिखर को
और सीढ़ियाँ उतर गईं ।
गाँव भर का धुआँ
धान की धुन में रमा
रोटियों की चटर- पटर से
घर - घर में कोलाहल
चाँद ने पोखर से पूछा
अपनी सूरत निहार लूँ !
धीरे - धीरे चाँद ने
पथ बुहार दिए
अभिसारिकाओं के
अँधेरे ने देखा लजाती सांझ को
और मुस्काने लगा
होंठ काटती सांझ
समा गई चुपके से
अँधेरे की भुजाओं में ।
आकाश से परियों का टोला उतरा
पूरे गाँव में पसर गया।
होंठ काटती सांझ
जवाब देंहटाएंसमा गई चुपके से
अँधेरे की भुजाओं में ।
amazing
भाई चैध सिँह जी,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता के लिए बधाई।
अब तो आप छा रहे हैँ।क्या ग़ज़ब की प्रतीकात्मकता है आपके वाक्यविन्यास मेँ!पढ़ते ही सकून मिलता है।
प्रकृति के रूप का सुन्दर चित्रण किया दै आपने चैन जी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसरलता और सहजता का अद्भुत सम्मिश्रण बरबस मन को आकृष्ट