मंगलवार, 15 मार्च 2011

ये सम्मोहन नहीं तो क्या है

लोग कहते रहे
पंख तेरे हैं पर उड़ान नहीं 
कहते रहे सैकड़ों हजारों साल 
बांधते रहे देहरी तक आकाश 

एक सम्मोहन की तरह 
सीमाएं उसके अस्तित्व पर 
मढ़ती चली गई

आज उस लड़की की आँख में 
छोटे-छोटे कुछ बादल तैरते हैं 
सपनों की पाल खुल नहीं पाती 
एक घर है 
एक आँगन है 
मुस्कुराहटें कम सही काफी हैं 
प्रेम के कुछ प्रयास हैं 

शास्त्रीय किस्म के इस सम्मोहन ने 
कुछ संभावनाओं को लीला है या नहीं 
कह नहीं सकते मगर 
इन रंगीन पंखों को निश्चित ही 
कुछ ऊंचा 
और ऊंचा उड़ना चाहिये था 

मंगलवार, 8 मार्च 2011

अरुणा शानबाग के लिये


मौसम बदलते रहे तुम्हारे इर्द-गिर्द
हवाएँ ठंडी से गर्म फिर ठंडी हो गईं
बच्चे जवान होकर पिता बन गए
पौधे वृक्ष बन बैठे
पुण्य फलित हुए
पाप दण्डित हुए

सिर्फ तुम्हीं हो अरुणा
जो नहीं बदली
सैंतीस साल तुमने प्रतीक्षा को दिये
मृत्यु की
या जीवन की
हम भी नहीं समझ पाए

सोहन सात साल की सजा पाते हैं
अरुणा सैंतीस साल
(और आगे न जाने कितनी )
ये लेखा जोखा किसके हाथों है भगवान

करुणा विगलित हैं हम
हमारे स्वर
वाक् आडम्बर में शीर्ष ये जमात
दुनिया की सबसे सभ्य कौम है

न जाने कितने सोहन करवट बदलते हैं
इन अँधेरी गुफाओं में
न जाने कितनी अरुणा
सिसक भी नहीं पाती
सैन्तीसों साल

इस प्रकरण का पटाक्षेप नहीं है ये
कुछ प्रश्न तैरते हैं मंच पर
फिर दम तोड़ देते हैं दर्शकों की भीड़ में
तालियों के शोर में
कुछ पात्रों के आँसू सुने भी नहीं जाते