गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

बीकानेर की एक धूल भरी शाम

बीकानेर की एक धुल भरी गरम 
उदास शाम है यह 
छड़े-बिछड़े रूँख रेत के बोझ से दबे 
कंधे लटकाए खड़े हैं 

शहर भर की आँखों में 
एक निष्क्रिय प्यास है 
इतिहास के खंडहरों में फड़फडाता है एक कबूतर 
आकाश कुछ बेचैन-सा करवट बदलता है

काँख में दबा किला कसमसाता है  
चौड़े सीने और लम्बी बाँहों वाली 
ये पुरानी दीवारें 
अपनी आँखों में अंगारे लिए घूरती हैं 
सर्किलों और सड़कों को 
जहाँ पान और ज़र्दे से सने कोने                       
फूली साँस लिए अटके हैं 

धुल की किरकिराती गोद में 
किसी योगी के कमण्डल से ढुलक कर 
श्राप की अंजुरी से छिटकी 
जल की बूँद-सा 

अवाक है लेकिन 
जबड़ों तक मुस्कुराता है 
ये शहर                            

रविवार, 3 अप्रैल 2011

ये अहसास जरूरी है

खोलता हूँ कभी कभार 
उस पुरानी पोटली को 
जंग खाई चीज़ों के बीच ढूँढता हूँ कुछ

एक पूरी की पूरी बस्ती 
जिन्दा हो उठती है भीतर 

धुएँ की महीन सी लकीरों को छेदती 
नमी की एक परत उभर आती है आँखों में 

जब तक जिएगा ये पोटली का सामान 
अहसास रहेगा 
अपनी गर्भनाल से जुड़े होने का