बीकानेर की एक धुल भरी गरम
उदास शाम है यह
छड़े-बिछड़े रूँख रेत के बोझ से दबे
कंधे लटकाए खड़े हैं
शहर भर की आँखों में
एक निष्क्रिय प्यास है
इतिहास के खंडहरों में फड़फडाता है एक कबूतर
आकाश कुछ बेचैन-सा करवट बदलता है
काँख में दबा किला कसमसाता है
चौड़े सीने और लम्बी बाँहों वाली
ये पुरानी दीवारें
अपनी आँखों में अंगारे लिए घूरती हैं
सर्किलों और सड़कों को
जहाँ पान और ज़र्दे से सने कोने
फूली साँस लिए अटके हैं
धुल की किरकिराती गोद में
किसी योगी के कमण्डल से ढुलक कर
श्राप की अंजुरी से छिटकी
जल की बूँद-सा
अवाक है लेकिन
जबड़ों तक मुस्कुराता है
ये शहर