गुरुवार, 16 जून 2011

तीन छोटी कविताएँ

एक 

रात के छिद्रों में
फूँकता है कोई प्राण 
बाँसुरी मचल उठती है 

तम की लहरियाँ 
छेड़ती हैं धमनियों को 
एक तुम नहीं 
रात का यौवन व्यर्थ 

दो 

जीवन बाँस बन बैठा है
फूल न खिले
तो अकाल सा दिखता है 
खिल गए फूल अगर 
तो अकाल के अंदेशे में 
पत्थर मारते हैं लोग 


तीन  

घर 
मेरे होने को सार्थक करता है 
मैं समेट देता हूँ 
घर के होने को 
एक कोने में 

अब घर में मैं निरर्थक हूँ 
और घर मुझमें 


मंगलवार, 7 जून 2011

तुम तक कैसे पहुँचे दर्द मेरा

तुम तक कैसे पहुँचे दर्द मेरा 

तुम्हें दर्द देना नहीं 
परिचित कराना है 
इन स्वरों और सुरों से 
ताकि बाद के दिनों में 
दर्द तुम्हें अपना सा लगे 

तुम अपनी मुस्कुराहटें मुझे भेज दो 

मैं भी हँसता हूँ 
खुश हूँ 
मगर किसी और के हाथों से मरहम 
बड़ा सुकून देता है 

और ये जो सम्प्रेषण है 
समय की क्रूरता से मुक्ति दिलाता है 
सचमुच