एक
रात के छिद्रों में
फूँकता है कोई प्राण
बाँसुरी मचल उठती है
तम की लहरियाँ
छेड़ती हैं धमनियों को
एक तुम नहीं
रात का यौवन व्यर्थ
दो
जीवन बाँस बन बैठा है
फूल न खिले
तो अकाल सा दिखता है
खिल गए फूल अगर
तो अकाल के अंदेशे में
पत्थर मारते हैं लोग
तीन
घर
मेरे होने को सार्थक करता है
मैं समेट देता हूँ
घर के होने को
एक कोने में
अब घर में मैं निरर्थक हूँ
और घर मुझमें