रविवार, 15 अगस्त 2010

नदी


आस्था के पुष्पों

और मुर्दों ने तुझे लील लिया

बाज़ार के टापू धड़धड़ाते रहे

सीने पर तेरे

पर्वतों की कृपणता ने तुझे कील लिया

पुरानी तस्वीरों और स्मृतियों के घेरे

तुझे आकाशगंगा बना देंगे

पद-चिह्नों की धूल

चकाचौंध में दुबक तमाम हो रही


कुछ उजले हाथ अपर्याप्त हैं

ये ध्वजाएँ बहुत थोड़ी हैं

भीड़ के भेजे में कौन उकेरे

तेरे दर्दनाक हादसों की टीस


उपाधियों और नामकरणों की

इस समूची पीढ़ी की पैदावार छोड़िये

उन टापुओं की मोहिनी माया

पेट को रोटी दे न दे

वंशजों के वृक्ष को मट्ठा अवश्य देगी l


मंगलवार, 3 अगस्त 2010

भाषा के सवाल पर

भाषा को जुलूस की शक्ल देना
कंठ की विवशता ही तो है
वरना शब्दों के विज्ञापन
श्लीलता की सीमा के बाहर की चीज़ है

माँ के गर्भ में मिले शब्द
जब घुटन महसूसने लगे
तो समझिये
एक भाषा के गर्भपात का षड्यंत्र जारी है

उनकी अपनी धरोहरें हैं
इन्हीं शब्दों के संग्रहालयों में सजी
इस बहाने देखिएगा ये सभी
संस्कृति के शवदाह-गृह में बदल जाएँगे

अपनी माटी की सुगंध सनातन होती है
अक्षरों के बीज जब मौसम छीन लेगा
गूंगी फसलें बांझपन की
हवाओं में शब्दों के अभिशाप देखेंगी

यह एक विचित्र कथा-यात्रा है
करोड़ों कंठों की जाजम धरने पर बैठी है
इनके पृष्ठ फडफडा रहे हैं ..देर से
एक दलदल है
जिसने इस विवशता को संगीन समझा है