ज़िन्दगी में अनोखे रंग भरे हैं .......ईश्वर ने । रंग मौसम के ....रंग भावों के ...... रंग संवेदनाओं के । इन्हीं रंगों को देखने , समझने , और अभिव्यक्त करने की कोशिश है ये ब्लॉग.... ...... ज़िन्दगी - ऐ- ज़िन्दगी.... ।
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
राजस्थानी भाषा है,बोली या विभाषा नहीं
दूसरी और अन्य मध्ययुगीन भारतीय भाषाओँ के विकास के लगभग साथ ही राजस्थानी भाषा का प्रादुर्भाव हुआ. ५०० ई० से १००० ई० तक का समय अपभ्रंश भाषाओँ की उत्पत्ति और विकास का माना जाता है। अपभ्रंश के २७ भेदों में से गुर्जरी अपभ्रंश से राजस्थानी की उत्पत्ति मानी जाती है,जबकि हिंदी भाषा का विकास शौरसैनी अपभ्रंश से हुआ। बेशक दोनों भाषाएँ विकास की प्रक्रिया में वैदिक संस्कृत के ही निकली हैं,लेकिन मात्र लिपिगत एकरूपता के कारण राजस्थानी को हिंदी की विभाषा या बोली बताना गलत है। राजस्थानी हिंदी से अधिक पुरानी भाषा है,लेकिन भाषा-विकास की प्रक्रिया में खड़ी बोली ने शासन के केंद्र की शरण पाकर अप्रत्याशित विकास कर लिया।
राजस्थानी ने अपना पांच सौ वर्षों का साहित्य हिंदी को समर्पित किया है। हिंदी का समग्र आदिकाल राजशानी भाषा का नहीं तो और क्या है? राजस्थानी लोगों ने सदा त्याग और बलिदान के मूल्यों को महत्व दिया है। यही राजस्थानी भाषा के साथ हुआ। संविधान-निर्माण के समय श्री जमनालाल बजाज के राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करवाने के प्रयासों को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने हिंदी हित के नाम पर धता बता दिया। बिलकुल वही स्थिति आज भी देखने को मिल रही है। समझ में नहीं आता,हिंदी को राजस्थानी भाषा की मान्यता से क्या खतरा है। पंजाबी से पंजाब में ,गुजराती से गुजरात में , मराठी से महाराष्ट्र में हिंदी को क्या हानि हुई ?और अगर अपनी मातृ-भाषा के सम्मान और मान्यता के मार्ग में हिंदी को कोई क्षति होती भी है,तो हो;अव्वल तो ऐसा होगा नहीं।
गुर्जरी अपभ्रंश से निकली मरुवाणी की दो शैलियाँ -डिंगल और पिंगल ही कालांतर में साहित्यिक राजस्थानी के रूप में विकसित हुईं। इसकी उच्चारणगत विविधता वस्तुतः इसकी सम्पन्नता की ही परिचायक है। जिस तरह बूंदी के सूर्यमल्ल मिश्रण की राजस्थानी बीकानेर के पृथ्वीराज राठौर की भाषा से पृथक नहीं,ठीक उसी प्रकार कोटा के अतुल कनक की भाषा गंगानगर के मोहन आलोक की भाषा से अलग नहीं है। क्षेत्रगत प्रभाव विश्व की सभी भाषाओँ में देखे गए हैं,भले ही वह कितनी ही विकसित भाषा क्यों न हो।
राजस्थानी भाषा के आदिकाल को देखें तो उसकी कई शैलियाँ थीं जो उसकी स्वरूपगत विविधता को दर्शाती थीं। जैन शैली,संत शैली,चारण शैली, लौकिक शैली आदि राजस्थानी के विविध रूप हैं,लेकिन कोई मूलभूत अंतर नहीं है,जिसके आधार पर सबको परस्पर असम्पृक्त घोषित किया जा सके।
अस्सी प्रतिशत राजस्थानियों की मातृ-भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के मार्ग में राजस्थान के ही वे लोग खड़े हो रहे हैं,जो शायद मातृ-भाषा की अवधारणा से ही अनभिज्ञ हैं.आर्य समाजियों ने सदैव प्रादेशिक भाषाओँ का तिरस्कार किया है। वे अखंड राष्ट्र-एक भाषा की वकालत करते हैं.राजस्थानी भाषा मान्यता आन्दोलन भारत और हिंदी के प्रति विद्रोह नहीं है, अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को बचाए रखने की जुगत है। आश्चर्य...सिन्धी समाज इस मान्यता की विरोध में उतर आया है। महाराजा हनुवंत सिंह जी ने पाकिस्तान में प्रताड़ित सिंधियों को यहाँ लाकर बसाया और वे इसका सिला हमारी मातृ-भाषा का विरोध करके दे रहे है.हमने तो कभी सिन्धी का विरोध नहीं किया। सिन्धी अकादमी खुली,अच्छी बात। शिक्षा विभाग में सिन्धी तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है,अच्छी बात। राजस्थानी प्रेमी कभी सिन्धी के विरोध में खड़ा नहीं हुआ,फिर इन्हें क्या सूझी । जो अपनी मातृ-भाषा का सम्मान करना जानते हैं,वही दूसरों की मायड़ भाषा का सम्मान कर सकते हैं।
एक बात अटल मानिये,मायड़ भाषा को मान्यता का यह संघर्ष प्रतिरोधों के थपेड़ों से क्लांत नहीं होगा। जितना विरोध किसी बात का होता है,उसकी प्रबलता उतनी ही वेगवती होती है। न्यूटन का 'रिवर्स इफेक्ट 'का सिद्धांत यही कहता है। सो...विरोधियो....जय राजस्थानी।
रविवार, 25 अप्रैल 2010
पंचलड़ी
हिवड़ो म्हारो खोल बतावां ।
सावण आखा सूका दीसै
बिरखा रो के मोल बातावां।
खुडको व्हैसी दूरां दूर
पोलां बाजै ढोल बतावां ।
काईं गीत सुणैला कोई
बाजां रै'सी झोल बतावां ।
राज सुणै तो सुण लेवैला
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
ग़ज़ल
शबनमी कतरे आँख में पिघले से लगते हैं।
रात भर महकी रातरानी के निशाँ हैं ये
कलेजे के पत्थर थोड़े हिले से लगते हैं।
बोल कर बता देगी ये शाम मुझको चुपके से
दिल के आंसू आँख में निकले से लगते हैं।
चांदनी छिप-छिप के सहला रही है जज़्बात
बेकाबू हैं,साँसों के काफ़िले से लगते हैं।
तुम लाख छिपाओ तबस्सुम के तले लेकिन
होठों पे जो फैले हैं ,गिले से लगते हैं.
बुधवार, 21 अप्रैल 2010
मायड़-भासा
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
मायड़-भासा
झुर्रियों की परतें पड़ गयी हैं
उसके चेहरे पर
आँखों में नीम उदासी नज़र आती है
उम्र के महासागर पार किये हैं
मगर मक़ाम अभी बाक़ी है.......
उसके शब्दों में अनुभव अथाह भरा है
वाणी में अजब रवानी है
उसके गीत सतरंगी छब लिए
वातों-ख्यातों सी कहाँ कहानी है.....
मगर ....
कपूतों ने उसे बिसरा दिया है
भूल बैठे हैं
मायड़ से मिले संस्कार-संस्कृति
और बनने चले हैं
मातृ-हन्ता।
उसे सेवरा बना लीजिये
और उसके आखरों को सिरपेच
शब्दों के तीर
भावों के भाले लेकर
'मानता' के संघर्ष में कूद पड़िये।
मायड़ के अपमान का काळूंस
तुम्हें जीने नहीं देगा
और तुम्हारी पीढ़ियों का भविष्य अँधेरा होगा
हे मायड़-भासा राजस्थानी के
कपूत निजोगे राजस्थानियों !
माँ का मान सहेजो
अरे माँ है वो....मायड़।
ढाई-आखर
इतरो काँईं गुमान होग्यो।
फेरूँ-फेरूँ बा'वड़ी
बेरण थारी ओळूँ।
मन रो मिन्दर सून पड़्यो
सूनो कुंकुंम थाळ रोळूँ।
रात रूवाणै कागला
रूसेड़ो भगवान् होग्यो ।
झालो दे'र बुलावै है
खेजड़ली रा खोख्र्या।
थारो नाम खुदेड़ो रे'सी
डूंगर खम्बा पोख्र्या।
बाटड़ली रो जोव्णों
म्हारो वेद पुराण होग्यो।
करड़ी घणी कुर्ळावै कुरजां
काट-काट नीं खावै है ।
नेह निरो'ई इतरो गै'रो
मन रा तार बजावै है ।
उतरूँ-उतरूँ डूबूँ -डूबूँ
'ढाई -आखर' ज्ञान होग्यो.
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
रविवार, 4 अप्रैल 2010
नयनों से छू लो
बीत चुकी बरसात
पवन हिंडोले पालकी
प्राण!आकर आज
संग झूलो ।
तन मन श्लथ को
हत आहत को
श्वासों की सौरभ से भर
मूक अधर से स्पंदन कर
नयनों से तुम
मुझको छू लो ।
प्राण!आकर आज
संग झूलो।
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
याद में रोशन
और इल्ज़ाम मेरे सर गए होंगे।
ओढ़ कर किरणों की जो चादर आए
जगा कर बस्ती को सहर गए होंगे।
तमाम उम्र जिनके ख़्वाब नवाबी
गुज़ार कर मुफ़लिसी गुज़र गए होंगे।
हर शाम है जिनकी याद में रोशन
ख़्यालों में वो भी संवर गए होंगे।
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
वक़्त थोड़ा ही सही जो खुद की नज़र होता ।
मंथन किये हैं उम्र भर अमृत की आस में
जब भी हिस्सा हुआ उसके हिस्से ज़हर होता ।
बेमियादी हो गए सब बेजुबान जज़्बे
रोशनी बोलती जो चरागों में असर होता ।
जवानी भर निभाया ये दस्तूर हमने
हाथ में फूल आँख में ज़माने का डर होता ।
सीख ही जाते दुश्मनी के कायदे तमाम
घर में मेरे भी दोस्तों का जो बसर होता ।