जिस भाषा का जनता के साथ जितना अधिक संपर्क होता है,उसका प्रभाव-क्षेत्र उतना ही व्यापक होता है.मध्यकाल से पूर्व दिल्ली-मेरठ क्षेत्र की बोली,खड़ी बोली ,मध्य काल में व्यापारियों ,शासन वर्ग तथा संत-फकीरों की भाषा बनी और धीरे-धीरे इसके प्रभाव-क्षेत्र में वृद्धि होती चली गई.यह भी सच है की अब तक यह बोली साहित्य का माध्यम नहीं बन सकी थी.लेकिन आगामी दो शताब्दियों में संपर्कों में हुई वृद्धि की बदौलत यह बोली हिंदी भाषा बनी और विपुल साहित्य-सृजन का माध्यम बनी। हिंदी में आधुनिक काल के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र ,जो कि वाराणसी के थे,ने खड़ी बोली हिंदी को विदेशी भाषा माना था। यहाँ विदेशी उनका आशय दूसरे क्षेत्र की भाषा रहा होगा। और आज हम देखतें हैं कि हिंदी हमारे देश की राष्ट्र -भाषा बन गयी है। यह समूचा विकास दो सौ वर्षों से अधिक का किस्सा नहीं है।
दूसरी और अन्य मध्ययुगीन भारतीय भाषाओँ के विकास के लगभग साथ ही राजस्थानी भाषा का प्रादुर्भाव हुआ. ५०० ई० से १००० ई० तक का समय अपभ्रंश भाषाओँ की उत्पत्ति और विकास का माना जाता है। अपभ्रंश के २७ भेदों में से गुर्जरी अपभ्रंश से राजस्थानी की उत्पत्ति मानी जाती है,जबकि हिंदी भाषा का विकास शौरसैनी अपभ्रंश से हुआ। बेशक दोनों भाषाएँ विकास की प्रक्रिया में वैदिक संस्कृत के ही निकली हैं,लेकिन मात्र लिपिगत एकरूपता के कारण राजस्थानी को हिंदी की विभाषा या बोली बताना गलत है। राजस्थानी हिंदी से अधिक पुरानी भाषा है,लेकिन भाषा-विकास की प्रक्रिया में खड़ी बोली ने शासन के केंद्र की शरण पाकर अप्रत्याशित विकास कर लिया।
राजस्थानी ने अपना पांच सौ वर्षों का साहित्य हिंदी को समर्पित किया है। हिंदी का समग्र आदिकाल राजशानी भाषा का नहीं तो और क्या है? राजस्थानी लोगों ने सदा त्याग और बलिदान के मूल्यों को महत्व दिया है। यही राजस्थानी भाषा के साथ हुआ। संविधान-निर्माण के समय श्री जमनालाल बजाज के राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करवाने के प्रयासों को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने हिंदी हित के नाम पर धता बता दिया। बिलकुल वही स्थिति आज भी देखने को मिल रही है। समझ में नहीं आता,हिंदी को राजस्थानी भाषा की मान्यता से क्या खतरा है। पंजाबी से पंजाब में ,गुजराती से गुजरात में , मराठी से महाराष्ट्र में हिंदी को क्या हानि हुई ?और अगर अपनी मातृ-भाषा के सम्मान और मान्यता के मार्ग में हिंदी को कोई क्षति होती भी है,तो हो;अव्वल तो ऐसा होगा नहीं।
गुर्जरी अपभ्रंश से निकली मरुवाणी की दो शैलियाँ -डिंगल और पिंगल ही कालांतर में साहित्यिक राजस्थानी के रूप में विकसित हुईं। इसकी उच्चारणगत विविधता वस्तुतः इसकी सम्पन्नता की ही परिचायक है। जिस तरह बूंदी के सूर्यमल्ल मिश्रण की राजस्थानी बीकानेर के पृथ्वीराज राठौर की भाषा से पृथक नहीं,ठीक उसी प्रकार कोटा के अतुल कनक की भाषा गंगानगर के मोहन आलोक की भाषा से अलग नहीं है। क्षेत्रगत प्रभाव विश्व की सभी भाषाओँ में देखे गए हैं,भले ही वह कितनी ही विकसित भाषा क्यों न हो।
राजस्थानी भाषा के आदिकाल को देखें तो उसकी कई शैलियाँ थीं जो उसकी स्वरूपगत विविधता को दर्शाती थीं। जैन शैली,संत शैली,चारण शैली, लौकिक शैली आदि राजस्थानी के विविध रूप हैं,लेकिन कोई मूलभूत अंतर नहीं है,जिसके आधार पर सबको परस्पर असम्पृक्त घोषित किया जा सके।
अस्सी प्रतिशत राजस्थानियों की मातृ-भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के मार्ग में राजस्थान के ही वे लोग खड़े हो रहे हैं,जो शायद मातृ-भाषा की अवधारणा से ही अनभिज्ञ हैं.आर्य समाजियों ने सदैव प्रादेशिक भाषाओँ का तिरस्कार किया है। वे अखंड राष्ट्र-एक भाषा की वकालत करते हैं.राजस्थानी भाषा मान्यता आन्दोलन भारत और हिंदी के प्रति विद्रोह नहीं है, अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को बचाए रखने की जुगत है। आश्चर्य...सिन्धी समाज इस मान्यता की विरोध में उतर आया है। महाराजा हनुवंत सिंह जी ने पाकिस्तान में प्रताड़ित सिंधियों को यहाँ लाकर बसाया और वे इसका सिला हमारी मातृ-भाषा का विरोध करके दे रहे है.हमने तो कभी सिन्धी का विरोध नहीं किया। सिन्धी अकादमी खुली,अच्छी बात। शिक्षा विभाग में सिन्धी तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है,अच्छी बात। राजस्थानी प्रेमी कभी सिन्धी के विरोध में खड़ा नहीं हुआ,फिर इन्हें क्या सूझी । जो अपनी मातृ-भाषा का सम्मान करना जानते हैं,वही दूसरों की मायड़ भाषा का सम्मान कर सकते हैं।
एक बात अटल मानिये,मायड़ भाषा को मान्यता का यह संघर्ष प्रतिरोधों के थपेड़ों से क्लांत नहीं होगा। जितना विरोध किसी बात का होता है,उसकी प्रबलता उतनी ही वेगवती होती है। न्यूटन का 'रिवर्स इफेक्ट 'का सिद्धांत यही कहता है। सो...विरोधियो....जय राजस्थानी।
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