झुर्रियों की परतें पड़ गयी हैं
उसके चेहरे पर
आँखों में नीम उदासी नज़र आती है
उम्र के महासागर पार किये हैं
मगर मक़ाम अभी बाक़ी है.......
उसके शब्दों में अनुभव अथाह भरा है
वाणी में अजब रवानी है
उसके गीत सतरंगी छब लिए
वातों-ख्यातों सी कहाँ कहानी है.....
मगर ....
कपूतों ने उसे बिसरा दिया है
भूल बैठे हैं
मायड़ से मिले संस्कार-संस्कृति
और बनने चले हैं
मातृ-हन्ता।
उसे सेवरा बना लीजिये
और उसके आखरों को सिरपेच
शब्दों के तीर
भावों के भाले लेकर
'मानता' के संघर्ष में कूद पड़िये।
मायड़ के अपमान का काळूंस
तुम्हें जीने नहीं देगा
और तुम्हारी पीढ़ियों का भविष्य अँधेरा होगा
हे मायड़-भासा राजस्थानी के
कपूत निजोगे राजस्थानियों !
माँ का मान सहेजो
अरे माँ है वो....मायड़।
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