कविता
एक रोहिड़े का फूल है
गर्मियाँ कसमसाती हैं
भीतर कहीं गहरे तो
रोहिड़ा सुर्ख़ सा सिर तान
धरा पर कौंध उठता है
आस पास जब
सारी निशानियों के पर उतर जाते हैं
अस्तित्वों के ढूह
शुष्क और बंजर नज़र आते हैं
न मालूम
कहाँ से शेष बची कुछ लालिमा को
यत्न से निथारकर
रोहिड़ा
तड़पती प्रेमिका की धरती पर
प्रेम के दो फूल टांक देता है
रोहिड़े का यह फूल
मेरी कविता है
हवा की बेचैनियाँ
जब करवट बदलती हैं
ठन्डे आकाश की बाँहों में
अंगड़ाई लेने लगती है जब
बादलों की तप्त अभिलाषाएँ
झुलसती आँख में आँसू सी
कविता मुस्कुराती है
ठीक वैसे ही
धरती की पथराई प्यास के सीने पर
धर कर अपने पाँव
उगते सूरज का मुखौटा पहन
गर्मियों की भीड़ में एक अकेला
रोहिड़ा ही है
जो कविता की तरह
रेत के चेहरे पर छप जाता है ।
ज़िन्दगी में अनोखे रंग भरे हैं .......ईश्वर ने । रंग मौसम के ....रंग भावों के ...... रंग संवेदनाओं के । इन्हीं रंगों को देखने , समझने , और अभिव्यक्त करने की कोशिश है ये ब्लॉग.... ...... ज़िन्दगी - ऐ- ज़िन्दगी.... ।
बुधवार, 28 जुलाई 2010
रविवार, 18 जुलाई 2010
अन्नदाता हैं हमारे
सहते रहो पीठ पर
लातों के सन्नाटेदार चाबुक
अन्नदाता हैं हमारे
ये अमिट स्याही नहीं
कलंक है लोकतंत्र की उँगलियों पर
यही द्रोणाचार्य फिर
उखाड़ेंगे उँगलियों से नाखून
तुम्हें तुम्हारी शताब्दियों पुरानी
सहिष्णुता की कसम
उफ़ तक न करना
मिट्टी की कोख से जन्मे
लौंदे हो तुम
अपने आकार को तरसते रहो
तालियाँ पीटो
उनकी रंगीन आकृतियाँ देखकर
इस मिट्टी में यकायक
दरार नहीं हो सकती कभी
तीव्र गर्जन तर्जन के साथ
पाँवों में तुम्हारे
कंठ तक पहुँची
शिक्षाओं का धुआँ अटका है
कंठ में तुम्हारे
शिखर तक लगी
बेड़ियों के स्वर झूलते हैं
महाशयों की पताकाएँ हैं वो
दंडवत हो जाओ
होठों को बुझाने से बेहतर
सलीका नहीं जीने का
ये मजबूत कन्धों की जमात
तुम्हें भी ढो लेगी
अन्नदाता हो हमारे
लातों के सन्नाटेदार चाबुक
अन्नदाता हैं हमारे
ये अमिट स्याही नहीं
कलंक है लोकतंत्र की उँगलियों पर
यही द्रोणाचार्य फिर
उखाड़ेंगे उँगलियों से नाखून
तुम्हें तुम्हारी शताब्दियों पुरानी
सहिष्णुता की कसम
उफ़ तक न करना
मिट्टी की कोख से जन्मे
लौंदे हो तुम
अपने आकार को तरसते रहो
तालियाँ पीटो
उनकी रंगीन आकृतियाँ देखकर
इस मिट्टी में यकायक
दरार नहीं हो सकती कभी
तीव्र गर्जन तर्जन के साथ
पाँवों में तुम्हारे
कंठ तक पहुँची
शिक्षाओं का धुआँ अटका है
कंठ में तुम्हारे
शिखर तक लगी
बेड़ियों के स्वर झूलते हैं
महाशयों की पताकाएँ हैं वो
दंडवत हो जाओ
होठों को बुझाने से बेहतर
सलीका नहीं जीने का
ये मजबूत कन्धों की जमात
तुम्हें भी ढो लेगी
अन्नदाता हो हमारे
शनिवार, 10 जुलाई 2010
ले धूप खिला
ओ सूरज
ले धूप खिला !
चाँद का कन्धा थपथपा
हल्के - हल्के कर विदा
हवाओं को उजला अहसास करा
ले धूप खिला
बच्चों के बस्तों में भर दे
मुस्कुराहट की चासनी के शक्करपारे
बड़ों की भीड़ का बोझ हटा
ले धूप खिला
धरती सूख न जाए
बादलों को मनुहारें आ
इस दर को दूर कर
पानी को पाप से बचा
ले धूप खिला
लड़कियों के दुपट्टों की
दूर कर सारी सलवटें
उम्र के माने बता
ले धूप खिला
मंदिर की अँधेरी छाया को
बच्चों की मुट्ठियों से दूर रख
वहाँ दो पेड़ लगा
ले धूप खिला
शहर की गलियाँ
सहेजन की फलियाँ
एक सी दिखें
कुछ यंत्र सुझा
ले धूप खिला
ओ सूरज
ले धूप खिला !
शनिवार, 3 जुलाई 2010
ग़ज़ल
हँसते तारे गाता चाँद ।
देखा है मुस्काता चाँद ।
प्रेम संदेशा ले मेरा
तेरी गलियाँ जाता चाँद ।
कितना रोए ख़त पढ़कर
आकर मुझे बताता चाँद ।
उसके जैसा दिखता तू
सुन - सुन कर शरमाता चाँद ।
चटख चाँदनी चूम चला
बहका सा मदमाता चाँद ।
सूंघ हवाएँ धरती की
चिंता से घबराता चाँद ।
छोड़ अकेला जाओगे
इक दिन,मुझे पता था चाँद ।
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