भाषा को जुलूस की शक्ल देना
कंठ की विवशता ही तो है
वरना शब्दों के विज्ञापन
श्लीलता की सीमा के बाहर की चीज़ है
माँ के गर्भ में मिले शब्द
जब घुटन महसूसने लगे
तो समझिये
एक भाषा के गर्भपात का षड्यंत्र जारी है
उनकी अपनी धरोहरें हैं
इन्हीं शब्दों के संग्रहालयों में सजी
इस बहाने देखिएगा ये सभी
संस्कृति के शवदाह-गृह में बदल जाएँगे
अपनी माटी की सुगंध सनातन होती है
अक्षरों के बीज जब मौसम छीन लेगा
गूंगी फसलें बांझपन की
हवाओं में शब्दों के अभिशाप देखेंगी
यह एक विचित्र कथा-यात्रा है
करोड़ों कंठों की जाजम धरने पर बैठी है
इनके पृष्ठ फडफडा रहे हैं ..देर से
एक दलदल है
जिसने इस विवशता को संगीन समझा है
बहुत सुन्दर लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
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