विरह ऐसा सघन हुआ है।
पतझर-सा मधुबन हुआ है।
अंतर्मन को भेद व्यथाएँ
विकल पोर निर्झर-पीड़ाएँ
सुप्त हुई सौरभ-क्रीड़ाएँ
प्रेम-निशा का स्वप्न मधुरम
वेदनामय रुदन हुआ है।
पल मखमल के कब के छूटे
स्पर्श रेशमी जबसे रूठे
सांस बावरी टूट,न टूटे
प्रेम-पंथ की यज्ञशाला
प्राण का यूँ हवन हुआ है।
बहुत खूब :)
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग तो बहुत अच्छा है और कविता भी प्यारी.
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पाखी की दुनिया में- 'जब अख़बार में हुई पाखी की चर्चा'
vigat kaviyon kee yaad aa gai
जवाब देंहटाएंमुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !
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