चाँद उदास दिखता है
ज़िन्दगी में अनोखे रंग भरे हैं .......ईश्वर ने । रंग मौसम के ....रंग भावों के ...... रंग संवेदनाओं के । इन्हीं रंगों को देखने , समझने , और अभिव्यक्त करने की कोशिश है ये ब्लॉग.... ...... ज़िन्दगी - ऐ- ज़िन्दगी.... ।
शनिवार, 25 दिसंबर 2010
रात की बात
चाँद उदास दिखता है
गुरुवार, 23 दिसंबर 2010
एक और भीष्म
गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010
रात की कहानी
रात के चेहरे पर
रोशनी की लकीर खींचते से
आ लगे किनारे तुम्हारे ख़याल
आकाश की जाजम पर
होने लगी चाँद की ताजपोशी
तारों की जयकार घुटने लगी
एक पुरानी नदी यादों की
उत्तर से दक्षिण
दूर तक पसरती चली गई
सूरज के रखवाले ने जब खोले द्वार
आँसुओं के निशान छिपाने लगे
फूलों पर बिखरे पद-चिह्न अपने
रात की कहानी
एक उम्र सी गुजरती है
हर रात
मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
चित्तौड़
रविवार, 17 अक्तूबर 2010
मन में इन्द्रधनुष
सोमवार, 11 अक्तूबर 2010
तुम्हारी खूबसूरती
मंगलवार, 7 सितंबर 2010
जो रोशनी दे
शनिवार, 4 सितंबर 2010
साँवली घटाएँ हैं
फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं l
कि तेरे गेसुओं की बावली बलाएँ हैं l
तपती धरती रूठ गयी तो बरखा फिर
बरसी कि जैसे आकाश की अदाएँ हैं l
ऊपर से सब भीगा भीतर सूख चला
न जाने कौन से मौसम की हवाएँ हैं l
पिघल के रहती हैं ये आखिर घटाएँ
बिखरे दूर तक जब प्यास की सदाएँ हैं l
फूल पत्तियाँ देहरी आँगन चौबारे
चाँद से उतरी फरिश्तों की दुआएँ हैं l
रविवार, 15 अगस्त 2010
नदी
आस्था के पुष्पों
और मुर्दों ने तुझे लील लिया
बाज़ार के टापू धड़धड़ाते रहे
सीने पर तेरे
पर्वतों की कृपणता ने तुझे कील लिया
पुरानी तस्वीरों और स्मृतियों के घेरे
तुझे आकाशगंगा बना देंगे
पद-चिह्नों की धूल
चकाचौंध में दुबक तमाम हो रही
कुछ उजले हाथ अपर्याप्त हैं
ये ध्वजाएँ बहुत थोड़ी हैं
भीड़ के भेजे में कौन उकेरे
तेरे दर्दनाक हादसों की टीस
उपाधियों और नामकरणों की
इस समूची पीढ़ी की पैदावार छोड़िये
उन टापुओं की मोहिनी माया
पेट को रोटी दे न दे
वंशजों के वृक्ष को मट्ठा अवश्य देगी l
मंगलवार, 3 अगस्त 2010
भाषा के सवाल पर
कंठ की विवशता ही तो है
वरना शब्दों के विज्ञापन
श्लीलता की सीमा के बाहर की चीज़ है
माँ के गर्भ में मिले शब्द
जब घुटन महसूसने लगे
तो समझिये
एक भाषा के गर्भपात का षड्यंत्र जारी है
उनकी अपनी धरोहरें हैं
इन्हीं शब्दों के संग्रहालयों में सजी
इस बहाने देखिएगा ये सभी
संस्कृति के शवदाह-गृह में बदल जाएँगे
अपनी माटी की सुगंध सनातन होती है
अक्षरों के बीज जब मौसम छीन लेगा
गूंगी फसलें बांझपन की
हवाओं में शब्दों के अभिशाप देखेंगी
यह एक विचित्र कथा-यात्रा है
करोड़ों कंठों की जाजम धरने पर बैठी है
इनके पृष्ठ फडफडा रहे हैं ..देर से
एक दलदल है
जिसने इस विवशता को संगीन समझा है
बुधवार, 28 जुलाई 2010
कविता और रोहिडे का फूल
एक रोहिड़े का फूल है
गर्मियाँ कसमसाती हैं
भीतर कहीं गहरे तो
रोहिड़ा सुर्ख़ सा सिर तान
धरा पर कौंध उठता है
आस पास जब
सारी निशानियों के पर उतर जाते हैं
अस्तित्वों के ढूह
शुष्क और बंजर नज़र आते हैं
न मालूम
कहाँ से शेष बची कुछ लालिमा को
यत्न से निथारकर
रोहिड़ा
तड़पती प्रेमिका की धरती पर
प्रेम के दो फूल टांक देता है
रोहिड़े का यह फूल
मेरी कविता है
हवा की बेचैनियाँ
जब करवट बदलती हैं
ठन्डे आकाश की बाँहों में
अंगड़ाई लेने लगती है जब
बादलों की तप्त अभिलाषाएँ
झुलसती आँख में आँसू सी
कविता मुस्कुराती है
ठीक वैसे ही
धरती की पथराई प्यास के सीने पर
धर कर अपने पाँव
उगते सूरज का मुखौटा पहन
गर्मियों की भीड़ में एक अकेला
रोहिड़ा ही है
जो कविता की तरह
रेत के चेहरे पर छप जाता है ।
रविवार, 18 जुलाई 2010
अन्नदाता हैं हमारे
लातों के सन्नाटेदार चाबुक
अन्नदाता हैं हमारे
ये अमिट स्याही नहीं
कलंक है लोकतंत्र की उँगलियों पर
यही द्रोणाचार्य फिर
उखाड़ेंगे उँगलियों से नाखून
तुम्हें तुम्हारी शताब्दियों पुरानी
सहिष्णुता की कसम
उफ़ तक न करना
मिट्टी की कोख से जन्मे
लौंदे हो तुम
अपने आकार को तरसते रहो
तालियाँ पीटो
उनकी रंगीन आकृतियाँ देखकर
इस मिट्टी में यकायक
दरार नहीं हो सकती कभी
तीव्र गर्जन तर्जन के साथ
पाँवों में तुम्हारे
कंठ तक पहुँची
शिक्षाओं का धुआँ अटका है
कंठ में तुम्हारे
शिखर तक लगी
बेड़ियों के स्वर झूलते हैं
महाशयों की पताकाएँ हैं वो
दंडवत हो जाओ
होठों को बुझाने से बेहतर
सलीका नहीं जीने का
ये मजबूत कन्धों की जमात
तुम्हें भी ढो लेगी
अन्नदाता हो हमारे
शनिवार, 10 जुलाई 2010
ले धूप खिला
शनिवार, 3 जुलाई 2010
ग़ज़ल
रविवार, 27 जून 2010
नमी कायम है
मंगलवार, 22 जून 2010
ऊँट के प्रति
शुक्रवार, 18 जून 2010
सांझ
सोमवार, 31 मई 2010
बादल
गुरुवार, 27 मई 2010
हम थार के पानी हैं
मंगलवार, 25 मई 2010
प्रेम: कुछ अहसास
अक्सर पूछते हैं
मुझसे तुम्हारा पता
और हवा बेहया - सी
उन्हें सब कुछ
बता देती है।
- - - -
मेहँदियाँ आईं
रचा डाले मेरे कोरे काग़ज़
कैसे - कैसे रंगीन , खुशबूदार
मेरा मन इतना मोरपंखी
पहले कभी न था ।
- - - -
हवाओं पर सवार होकर आईं
तुम्हारी साँसों ने
मेरे सारे पर्वत पिघला दिये
आँसुओं की नदी में
गुरूर की किश्तियाँ
डूबने लगीं.......एक - एक कर ।
- - - -
खुशबुओं ने कपड़े बदले
चाँद की अटारी जा बैठीं
मेरी छत से
तुम्हारी मुंडेर तक
रोशनी की एक
बन्दनवार बांध डाली
सूरज निकलने तक
नज़ारे बड़े हसीन दिखते थे ।
शनिवार, 22 मई 2010
नरभक्षी
बहुत उथल-पुथल की
वो भी सरे-बाज़ार
उसकी शिकायतें की गयीं
पुलिस थाने में,पुस्तकों में
पत्रिकाओं में,मंत्रालय में
पर्चे बांटे गए,चिपकाए गए
टी.वी. पर भी
उसका कड़ा विरोध
दर्ज कराया विद्वान वक्ताओं ने
और वातावरण विरोधमय हो उठा
अब उसका बचना
मुश्किल लग रहा था
लोग कह रहे थे
बस..अब बाज़ार के दिन
समझो लद गए हैं।
पर उसका क्या जो लोगों ने
बाज़ार के गले में पट्टा बांधा
और अपने दरवाज़े पर बांध लिया
वे कहते रहे , समझाते रहे
हम इसे बांध कर रखते हैं
किसी तो काट नहीं खाएगा
वो कुत्ता बड़ा सयाना लग रहा था
दरवाज़े पर बंधे कुत्ते
बड़े सुंदर नज़र आते हैं ।
लेकिन यह कोई आम कुत्ता नहीं था
नरभक्षियों की प्रजाति का था
दिखते नहीं है नरभक्षी
मगर होते अवश्य हैं
एक बार मुँह को खून लगा कि लगा
ऐसे नरभक्षी पहले कभी नहीं देखे
न हुए होंगे
और बाज़ार एक ऐसा ही नरभक्षी कुत्ता है.
बुधवार, 19 मई 2010
पहली बार
दोस्तों की आँखों में
हिकारत देखी ,
पीछे छूट गए सारे
मासूमियत के लवाजमें
उम्र का ऐसा असर
पहली बार देखा है।
तुमने अपनी शोखियाँ देखीं
दोस्तों की आँखों में
न जाने क्या देखा
सुनहरी पंख सारे
सिमटकर स्याह हो गए
उम्र का ऐसा असर
पहली बार देखा है।
रविवार, 16 मई 2010
शुक्रवार, 14 मई 2010
प्राणों का हवन
पतझर-सा मधुबन हुआ है।
अंतर्मन को भेद व्यथाएँ
विकल पोर निर्झर-पीड़ाएँ
सुप्त हुई सौरभ-क्रीड़ाएँ
प्रेम-निशा का स्वप्न मधुरम
वेदनामय रुदन हुआ है।
पल मखमल के कब के छूटे
स्पर्श रेशमी जबसे रूठे
सांस बावरी टूट,न टूटे
प्रेम-पंथ की यज्ञशाला
प्राण का यूँ हवन हुआ है।
बुधवार, 12 मई 2010
लड़कियाँ
अँधेरे की
क्योंकि कई बार उन्हें
रोशनी से चिढ़ होने लगती है
उनके सपने
इतने महीन हैं
इतने रेशमी हैं
और बिलकुल लड़कियों जैसे
कि रोशनी का एक ही दंड
उन्हें चकनाचूर कर दे
अँधेरे में लडकियाँ
घर से बाहर नहीं निकलती हैं
बल्कि छत के कोने से
कुछ तारों को समेट कर
अपने बालों में टाँक लेती हैं
और बना देती हैं
खाली आसमान पर
एक रंगों भरा सुंदर चित्र
धूप में लड़कियों के चेहरे को
चिपचिपा कर देती है भीड़
जिसे रात में धोकर
आईने में उड़ेल देती हैं वो
खुद को पूरा
लेकिन रात में भी
कुछ लोगों की आँखें
चमकती हैं कुत्तों और भेड़ियों की तरह
जब से लडकियाँ विज्ञापनों में आई हैं
उनकी कीमतें बढ़ गयी हैं
हर सामान के साथ
उन्हें भी खरीदा और बेचा जाता है
अब वे मूल्यवान हैं
सो अँधेरा उनका रक्षा-कवच है
लडकियाँ प्रतीक्षा करती हैं
अँधेरे की
लेकिन उनकी चिढ़ का
कोई अंत नहीं शायद
शनिवार, 8 मई 2010
शब्द
हाथ पकड़ कर तुम्हारा
तुम्हें अर्थ तक ले गया मैं
कितनी बार
तुम डूबने के डर से
धारा में उतरे ही नहीं
कितनी बार
उतरे तो
हाथ-पाँव भी मारे
पर डूब गए
तुम उलझे रहे
अभिधार्थों से व्यंग्यार्थों तक
सदा ही ठगा गया
मैं तुमसे
और छूटता गया कुछ पीछे
अनभिव्यक्त,असम्प्रेषित
सुना था..
सही सुना था
कि शब्द की सीमा होती है.
सोमवार, 3 मई 2010
स्वप्न
इनकी किश्तियाँ
अँधेरे की
आकाशगंगाओं पे तिरतीं हैं
कुछ अँधेरा चाहिये
स्वप्न संजोने के लिये
नरम होते हैं ये,मुलायम
इनकी नरमी
अँधेरे में अधिक
महसूस की जा सकती हैं.
तमाम आकाशगंगाएँ
रीत गयी हैं अँधेरे की
और किश्तियाँ
घात पर जंग खा रही हैं.
ये अँधेरा
एकाकीपन का है
जहाँ निशाचरों के
कारवाँ निकलते हैं.
भूखे जंगल
भेद नहीं सकती
हमारे नग्नता-प्रूफ चश्मों को
हमारी भाषा और कपड़े
हमें सभ्य बनाते हैं
लेकिन
असभ्यता की हक़ीक़त
मानों दिल्ली से दूर है
भूख को बारूद बनाने की
ये भूल अपराध है
या कि
भूख ही है अपराध
बन्दूक पर बन्दूक से
और उगेंगी बंदूकें
किन्हीं जंगलों में
और हम
व्यस्त हो जाएँगे
यह सिद्ध करेंगे
कि भूखे जंगल अपराधी हैं.
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
राजस्थानी भाषा है,बोली या विभाषा नहीं
दूसरी और अन्य मध्ययुगीन भारतीय भाषाओँ के विकास के लगभग साथ ही राजस्थानी भाषा का प्रादुर्भाव हुआ. ५०० ई० से १००० ई० तक का समय अपभ्रंश भाषाओँ की उत्पत्ति और विकास का माना जाता है। अपभ्रंश के २७ भेदों में से गुर्जरी अपभ्रंश से राजस्थानी की उत्पत्ति मानी जाती है,जबकि हिंदी भाषा का विकास शौरसैनी अपभ्रंश से हुआ। बेशक दोनों भाषाएँ विकास की प्रक्रिया में वैदिक संस्कृत के ही निकली हैं,लेकिन मात्र लिपिगत एकरूपता के कारण राजस्थानी को हिंदी की विभाषा या बोली बताना गलत है। राजस्थानी हिंदी से अधिक पुरानी भाषा है,लेकिन भाषा-विकास की प्रक्रिया में खड़ी बोली ने शासन के केंद्र की शरण पाकर अप्रत्याशित विकास कर लिया।
राजस्थानी ने अपना पांच सौ वर्षों का साहित्य हिंदी को समर्पित किया है। हिंदी का समग्र आदिकाल राजशानी भाषा का नहीं तो और क्या है? राजस्थानी लोगों ने सदा त्याग और बलिदान के मूल्यों को महत्व दिया है। यही राजस्थानी भाषा के साथ हुआ। संविधान-निर्माण के समय श्री जमनालाल बजाज के राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करवाने के प्रयासों को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने हिंदी हित के नाम पर धता बता दिया। बिलकुल वही स्थिति आज भी देखने को मिल रही है। समझ में नहीं आता,हिंदी को राजस्थानी भाषा की मान्यता से क्या खतरा है। पंजाबी से पंजाब में ,गुजराती से गुजरात में , मराठी से महाराष्ट्र में हिंदी को क्या हानि हुई ?और अगर अपनी मातृ-भाषा के सम्मान और मान्यता के मार्ग में हिंदी को कोई क्षति होती भी है,तो हो;अव्वल तो ऐसा होगा नहीं।
गुर्जरी अपभ्रंश से निकली मरुवाणी की दो शैलियाँ -डिंगल और पिंगल ही कालांतर में साहित्यिक राजस्थानी के रूप में विकसित हुईं। इसकी उच्चारणगत विविधता वस्तुतः इसकी सम्पन्नता की ही परिचायक है। जिस तरह बूंदी के सूर्यमल्ल मिश्रण की राजस्थानी बीकानेर के पृथ्वीराज राठौर की भाषा से पृथक नहीं,ठीक उसी प्रकार कोटा के अतुल कनक की भाषा गंगानगर के मोहन आलोक की भाषा से अलग नहीं है। क्षेत्रगत प्रभाव विश्व की सभी भाषाओँ में देखे गए हैं,भले ही वह कितनी ही विकसित भाषा क्यों न हो।
राजस्थानी भाषा के आदिकाल को देखें तो उसकी कई शैलियाँ थीं जो उसकी स्वरूपगत विविधता को दर्शाती थीं। जैन शैली,संत शैली,चारण शैली, लौकिक शैली आदि राजस्थानी के विविध रूप हैं,लेकिन कोई मूलभूत अंतर नहीं है,जिसके आधार पर सबको परस्पर असम्पृक्त घोषित किया जा सके।
अस्सी प्रतिशत राजस्थानियों की मातृ-भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के मार्ग में राजस्थान के ही वे लोग खड़े हो रहे हैं,जो शायद मातृ-भाषा की अवधारणा से ही अनभिज्ञ हैं.आर्य समाजियों ने सदैव प्रादेशिक भाषाओँ का तिरस्कार किया है। वे अखंड राष्ट्र-एक भाषा की वकालत करते हैं.राजस्थानी भाषा मान्यता आन्दोलन भारत और हिंदी के प्रति विद्रोह नहीं है, अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को बचाए रखने की जुगत है। आश्चर्य...सिन्धी समाज इस मान्यता की विरोध में उतर आया है। महाराजा हनुवंत सिंह जी ने पाकिस्तान में प्रताड़ित सिंधियों को यहाँ लाकर बसाया और वे इसका सिला हमारी मातृ-भाषा का विरोध करके दे रहे है.हमने तो कभी सिन्धी का विरोध नहीं किया। सिन्धी अकादमी खुली,अच्छी बात। शिक्षा विभाग में सिन्धी तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है,अच्छी बात। राजस्थानी प्रेमी कभी सिन्धी के विरोध में खड़ा नहीं हुआ,फिर इन्हें क्या सूझी । जो अपनी मातृ-भाषा का सम्मान करना जानते हैं,वही दूसरों की मायड़ भाषा का सम्मान कर सकते हैं।
एक बात अटल मानिये,मायड़ भाषा को मान्यता का यह संघर्ष प्रतिरोधों के थपेड़ों से क्लांत नहीं होगा। जितना विरोध किसी बात का होता है,उसकी प्रबलता उतनी ही वेगवती होती है। न्यूटन का 'रिवर्स इफेक्ट 'का सिद्धांत यही कहता है। सो...विरोधियो....जय राजस्थानी।
रविवार, 25 अप्रैल 2010
पंचलड़ी
हिवड़ो म्हारो खोल बतावां ।
सावण आखा सूका दीसै
बिरखा रो के मोल बातावां।
खुडको व्हैसी दूरां दूर
पोलां बाजै ढोल बतावां ।
काईं गीत सुणैला कोई
बाजां रै'सी झोल बतावां ।
राज सुणै तो सुण लेवैला
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
ग़ज़ल
शबनमी कतरे आँख में पिघले से लगते हैं।
रात भर महकी रातरानी के निशाँ हैं ये
कलेजे के पत्थर थोड़े हिले से लगते हैं।
बोल कर बता देगी ये शाम मुझको चुपके से
दिल के आंसू आँख में निकले से लगते हैं।
चांदनी छिप-छिप के सहला रही है जज़्बात
बेकाबू हैं,साँसों के काफ़िले से लगते हैं।
तुम लाख छिपाओ तबस्सुम के तले लेकिन
होठों पे जो फैले हैं ,गिले से लगते हैं.
बुधवार, 21 अप्रैल 2010
मायड़-भासा
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
मायड़-भासा
झुर्रियों की परतें पड़ गयी हैं
उसके चेहरे पर
आँखों में नीम उदासी नज़र आती है
उम्र के महासागर पार किये हैं
मगर मक़ाम अभी बाक़ी है.......
उसके शब्दों में अनुभव अथाह भरा है
वाणी में अजब रवानी है
उसके गीत सतरंगी छब लिए
वातों-ख्यातों सी कहाँ कहानी है.....
मगर ....
कपूतों ने उसे बिसरा दिया है
भूल बैठे हैं
मायड़ से मिले संस्कार-संस्कृति
और बनने चले हैं
मातृ-हन्ता।
उसे सेवरा बना लीजिये
और उसके आखरों को सिरपेच
शब्दों के तीर
भावों के भाले लेकर
'मानता' के संघर्ष में कूद पड़िये।
मायड़ के अपमान का काळूंस
तुम्हें जीने नहीं देगा
और तुम्हारी पीढ़ियों का भविष्य अँधेरा होगा
हे मायड़-भासा राजस्थानी के
कपूत निजोगे राजस्थानियों !
माँ का मान सहेजो
अरे माँ है वो....मायड़।
ढाई-आखर
इतरो काँईं गुमान होग्यो।
फेरूँ-फेरूँ बा'वड़ी
बेरण थारी ओळूँ।
मन रो मिन्दर सून पड़्यो
सूनो कुंकुंम थाळ रोळूँ।
रात रूवाणै कागला
रूसेड़ो भगवान् होग्यो ।
झालो दे'र बुलावै है
खेजड़ली रा खोख्र्या।
थारो नाम खुदेड़ो रे'सी
डूंगर खम्बा पोख्र्या।
बाटड़ली रो जोव्णों
म्हारो वेद पुराण होग्यो।
करड़ी घणी कुर्ळावै कुरजां
काट-काट नीं खावै है ।
नेह निरो'ई इतरो गै'रो
मन रा तार बजावै है ।
उतरूँ-उतरूँ डूबूँ -डूबूँ
'ढाई -आखर' ज्ञान होग्यो.
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
रविवार, 4 अप्रैल 2010
नयनों से छू लो
बीत चुकी बरसात
पवन हिंडोले पालकी
प्राण!आकर आज
संग झूलो ।
तन मन श्लथ को
हत आहत को
श्वासों की सौरभ से भर
मूक अधर से स्पंदन कर
नयनों से तुम
मुझको छू लो ।
प्राण!आकर आज
संग झूलो।
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
याद में रोशन
और इल्ज़ाम मेरे सर गए होंगे।
ओढ़ कर किरणों की जो चादर आए
जगा कर बस्ती को सहर गए होंगे।
तमाम उम्र जिनके ख़्वाब नवाबी
गुज़ार कर मुफ़लिसी गुज़र गए होंगे।
हर शाम है जिनकी याद में रोशन
ख़्यालों में वो भी संवर गए होंगे।
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
वक़्त थोड़ा ही सही जो खुद की नज़र होता ।
मंथन किये हैं उम्र भर अमृत की आस में
जब भी हिस्सा हुआ उसके हिस्से ज़हर होता ।
बेमियादी हो गए सब बेजुबान जज़्बे
रोशनी बोलती जो चरागों में असर होता ।
जवानी भर निभाया ये दस्तूर हमने
हाथ में फूल आँख में ज़माने का डर होता ।
सीख ही जाते दुश्मनी के कायदे तमाम
घर में मेरे भी दोस्तों का जो बसर होता ।
मंगलवार, 30 मार्च 2010
सोमवार, 22 मार्च 2010
मेरे आँगन चुपके-चुपके
प्रेम जागा भोर-सा
मिट चले सारे अँधेरे ।
बौराए बन फागुन - से
मदमस्त मेरे
स्वप्न - कुञ्ज
गले - पिघले प्रतिपल
ऊष्ण श्वासों से
पाषाणी - पुंज
नशा साँझ का
खुमार बन चढ़ा सवेरे ।
प्रेम जागा भोर - सा
मिट चले सारे अँधेरे ।
मेरे आँगन चुपके - चुपके
खुसर-फुसर तुलसी लहराए
आहट उनकी सुन
मन की चिरिया पर फहराए
रूप ने उनके
डाले हृदय में डेरे ।
प्रेम जागा भोर - सा
मिट चले सारे अँधेरे ।