बादल !
तुम एक आस का टुकड़ा हो
मन मारी मरुधरा के लिये
जैसे सदियाँ बीत गई हों
लू से लोहा लेते
आँधियों से अंधियाते
थपेड़ों से थकियाते
बादल !
तुम एक योद्धा हो
इस थार को थाम लो आकर ।
अबूझ अबोली पीड़ा इसकी
मूक दर्द के साक्षी हम हैं
पपड़ाती - सी देह झुरी - सी
शुष्क कंठ अकड़ाए - से
दीर्घ प्रतीक्षा के झूले में
श्लथ लेती प्राण - शून्य
तुझ बिन सारे सुख सूखे ।
रे बादल !
पान करा दे पौरुष अपना
इसकी उजड़ी मांग सजा
फिर फूटे सुवास गर्भ से इसके
नैनों से तृप्ति के नीर बहें
हे बादल !
तू प्रतीक है
पुरुषत्व का , पुंसत्व का ।