शनिवार, 2 मार्च 2013

शब्द

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शब्द 
बहाने ढूंढता है 
गढ़ता है 
और मढ़ देता है 

परत दर परत 
भाषा का लेप 
एक अतिरेक 
और अतिरिक्त 
अनावश्यकता  को 
जन्मता है 

शब्द 
संवेदना का पूरक नहीं 
आभास है 
मात्र 

बुधवार, 28 सितंबर 2011

एक दिन

खोलता हूँ आँखें
हवा के लिहाफ में
हर रोज़ सुबह-सुबह
दिन किसी बच्चे सा मुस्कुराता है

धूप की बुढ़िया चली आती है
पूरब के किस देस से जाने
गठरी लादे काँधे
दिन भर का बोझ

चुभती है दुपहरी की किरचें
सड़क की आँखों में
किरकिराती हैं

आखिरी बस की तरह लदी-पदी शाम
निकल जाती है
हिचकोले खाती सी

गुरुवार, 16 जून 2011

तीन छोटी कविताएँ

एक 

रात के छिद्रों में
फूँकता है कोई प्राण 
बाँसुरी मचल उठती है 

तम की लहरियाँ 
छेड़ती हैं धमनियों को 
एक तुम नहीं 
रात का यौवन व्यर्थ 

दो 

जीवन बाँस बन बैठा है
फूल न खिले
तो अकाल सा दिखता है 
खिल गए फूल अगर 
तो अकाल के अंदेशे में 
पत्थर मारते हैं लोग 


तीन  

घर 
मेरे होने को सार्थक करता है 
मैं समेट देता हूँ 
घर के होने को 
एक कोने में 

अब घर में मैं निरर्थक हूँ 
और घर मुझमें 


मंगलवार, 7 जून 2011

तुम तक कैसे पहुँचे दर्द मेरा

तुम तक कैसे पहुँचे दर्द मेरा 

तुम्हें दर्द देना नहीं 
परिचित कराना है 
इन स्वरों और सुरों से 
ताकि बाद के दिनों में 
दर्द तुम्हें अपना सा लगे 

तुम अपनी मुस्कुराहटें मुझे भेज दो 

मैं भी हँसता हूँ 
खुश हूँ 
मगर किसी और के हाथों से मरहम 
बड़ा सुकून देता है 

और ये जो सम्प्रेषण है 
समय की क्रूरता से मुक्ति दिलाता है 
सचमुच       

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

बीकानेर की एक धूल भरी शाम

बीकानेर की एक धुल भरी गरम 
उदास शाम है यह 
छड़े-बिछड़े रूँख रेत के बोझ से दबे 
कंधे लटकाए खड़े हैं 

शहर भर की आँखों में 
एक निष्क्रिय प्यास है 
इतिहास के खंडहरों में फड़फडाता है एक कबूतर 
आकाश कुछ बेचैन-सा करवट बदलता है

काँख में दबा किला कसमसाता है  
चौड़े सीने और लम्बी बाँहों वाली 
ये पुरानी दीवारें 
अपनी आँखों में अंगारे लिए घूरती हैं 
सर्किलों और सड़कों को 
जहाँ पान और ज़र्दे से सने कोने                       
फूली साँस लिए अटके हैं 

धुल की किरकिराती गोद में 
किसी योगी के कमण्डल से ढुलक कर 
श्राप की अंजुरी से छिटकी 
जल की बूँद-सा 

अवाक है लेकिन 
जबड़ों तक मुस्कुराता है 
ये शहर                            

रविवार, 3 अप्रैल 2011

ये अहसास जरूरी है

खोलता हूँ कभी कभार 
उस पुरानी पोटली को 
जंग खाई चीज़ों के बीच ढूँढता हूँ कुछ

एक पूरी की पूरी बस्ती 
जिन्दा हो उठती है भीतर 

धुएँ की महीन सी लकीरों को छेदती 
नमी की एक परत उभर आती है आँखों में 

जब तक जिएगा ये पोटली का सामान 
अहसास रहेगा 
अपनी गर्भनाल से जुड़े होने का                             

मंगलवार, 15 मार्च 2011

ये सम्मोहन नहीं तो क्या है

लोग कहते रहे
पंख तेरे हैं पर उड़ान नहीं 
कहते रहे सैकड़ों हजारों साल 
बांधते रहे देहरी तक आकाश 

एक सम्मोहन की तरह 
सीमाएं उसके अस्तित्व पर 
मढ़ती चली गई

आज उस लड़की की आँख में 
छोटे-छोटे कुछ बादल तैरते हैं 
सपनों की पाल खुल नहीं पाती 
एक घर है 
एक आँगन है 
मुस्कुराहटें कम सही काफी हैं 
प्रेम के कुछ प्रयास हैं 

शास्त्रीय किस्म के इस सम्मोहन ने 
कुछ संभावनाओं को लीला है या नहीं 
कह नहीं सकते मगर 
इन रंगीन पंखों को निश्चित ही 
कुछ ऊंचा 
और ऊंचा उड़ना चाहिये था