ज़िन्दगी में अनोखे रंग भरे हैं .......ईश्वर ने । रंग मौसम के ....रंग भावों के ...... रंग संवेदनाओं के । इन्हीं रंगों को देखने , समझने , और अभिव्यक्त करने की कोशिश है ये ब्लॉग.... ...... ज़िन्दगी - ऐ- ज़िन्दगी.... ।
बुधवार, 28 सितंबर 2011
गुरुवार, 16 जून 2011
तीन छोटी कविताएँ
एक
रात के छिद्रों में
फूँकता है कोई प्राण
बाँसुरी मचल उठती है
तम की लहरियाँ
छेड़ती हैं धमनियों को
एक तुम नहीं
रात का यौवन व्यर्थ
दो
जीवन बाँस बन बैठा है
फूल न खिले
तो अकाल सा दिखता है
खिल गए फूल अगर
तो अकाल के अंदेशे में
पत्थर मारते हैं लोग
तीन
घर
मेरे होने को सार्थक करता है
मैं समेट देता हूँ
घर के होने को
एक कोने में
अब घर में मैं निरर्थक हूँ
और घर मुझमें
मंगलवार, 7 जून 2011
तुम तक कैसे पहुँचे दर्द मेरा
तुम तक कैसे पहुँचे दर्द मेरा
तुम्हें दर्द देना नहीं
परिचित कराना है
इन स्वरों और सुरों से
ताकि बाद के दिनों में
दर्द तुम्हें अपना सा लगे
तुम अपनी मुस्कुराहटें मुझे भेज दो
मैं भी हँसता हूँ
खुश हूँ
मगर किसी और के हाथों से मरहम
बड़ा सुकून देता है
और ये जो सम्प्रेषण है
समय की क्रूरता से मुक्ति दिलाता है
सचमुच
गुरुवार, 28 अप्रैल 2011
बीकानेर की एक धूल भरी शाम
बीकानेर की एक धुल भरी गरम
उदास शाम है यह
छड़े-बिछड़े रूँख रेत के बोझ से दबे
कंधे लटकाए खड़े हैं
शहर भर की आँखों में
एक निष्क्रिय प्यास है
इतिहास के खंडहरों में फड़फडाता है एक कबूतर
आकाश कुछ बेचैन-सा करवट बदलता है
काँख में दबा किला कसमसाता है
चौड़े सीने और लम्बी बाँहों वाली
ये पुरानी दीवारें
अपनी आँखों में अंगारे लिए घूरती हैं
सर्किलों और सड़कों को
जहाँ पान और ज़र्दे से सने कोने
फूली साँस लिए अटके हैं
धुल की किरकिराती गोद में
किसी योगी के कमण्डल से ढुलक कर
श्राप की अंजुरी से छिटकी
जल की बूँद-सा
अवाक है लेकिन
जबड़ों तक मुस्कुराता है
ये शहर
रविवार, 3 अप्रैल 2011
मंगलवार, 15 मार्च 2011
ये सम्मोहन नहीं तो क्या है
लोग कहते रहे
पंख तेरे हैं पर उड़ान नहीं
कहते रहे सैकड़ों हजारों साल
बांधते रहे देहरी तक आकाश
एक सम्मोहन की तरह
सीमाएं उसके अस्तित्व पर
मढ़ती चली गई
आज उस लड़की की आँख में
छोटे-छोटे कुछ बादल तैरते हैं
सपनों की पाल खुल नहीं पाती
एक घर है
एक आँगन है
मुस्कुराहटें कम सही काफी हैं
प्रेम के कुछ प्रयास हैं
शास्त्रीय किस्म के इस सम्मोहन ने
कुछ संभावनाओं को लीला है या नहीं
कह नहीं सकते मगर
इन रंगीन पंखों को निश्चित ही
कुछ ऊंचा
और ऊंचा उड़ना चाहिये था
मंगलवार, 8 मार्च 2011
अरुणा शानबाग के लिये

मौसम बदलते रहे तुम्हारे इर्द-गिर्द
हवाएँ ठंडी से गर्म फिर ठंडी हो गईं
बच्चे जवान होकर पिता बन गए
पौधे वृक्ष बन बैठे
पुण्य फलित हुए
पाप दण्डित हुए
सिर्फ तुम्हीं हो अरुणा
जो नहीं बदली
सैंतीस साल तुमने प्रतीक्षा को दिये
मृत्यु की
या जीवन की
हम भी नहीं समझ पाए
सोहन सात साल की सजा पाते हैं
अरुणा सैंतीस साल
(और आगे न जाने कितनी )
ये लेखा जोखा किसके हाथों है भगवान
करुणा विगलित हैं हम
हमारे स्वर
वाक् आडम्बर में शीर्ष ये जमात
दुनिया की सबसे सभ्य कौम है
न जाने कितने सोहन करवट बदलते हैं
इन अँधेरी गुफाओं में
न जाने कितनी अरुणा
सिसक भी नहीं पाती
सैन्तीसों साल
इस प्रकरण का पटाक्षेप नहीं है ये
कुछ प्रश्न तैरते हैं मंच पर
फिर दम तोड़ देते हैं दर्शकों की भीड़ में
तालियों के शोर में
कुछ पात्रों के आँसू सुने भी नहीं जाते
रविवार, 13 फ़रवरी 2011
इस मौसम में
शनिवार, 5 फ़रवरी 2011
बसंत आने को है
शनिवार, 29 जनवरी 2011
गर्भनाल
सदस्यता लें
संदेश (Atom)