मंगलवार, 7 सितंबर 2010

जो रोशनी दे


हम सबने
अपने अपने परमात्माओं को पुकारा
हमें रास्ता दिखाओ
हम भटके हुए हैं
पर दिशाओं ने
चुप्पी की चादर ओढ़ ली
कोई नहीं आया

इतने में सूरज के दरीचे खुले
रोशनी के रास्ते पिघले
और हम सब
अपने अपने
घरों को चल दिये

शनिवार, 4 सितंबर 2010

साँवली घटाएँ हैं


फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं l


कि तेरे गेसुओं की बावली बलाएँ हैं l


तपती धरती रूठ गयी तो बरखा फिर


बरसी कि जैसे आकाश की अदाएँ हैं l


ऊपर से सब भीगा भीतर सूख चला


न जाने कौन से मौसम की हवाएँ हैं l


पिघल के रहती हैं ये आखिर घटाएँ


बिखरे दूर तक जब प्यास की सदाएँ हैं l


फूल पत्तियाँ देहरी आँगन चौबारे


चाँद से उतरी फरिश्तों की दुआएँ हैं l