सोमवार, 31 मई 2010

बादल


बादल !

तुम एक आस का टुकड़ा हो

मन मारी मरुधरा के लिये

जैसे सदियाँ बीत गई हों

लू से लोहा लेते

आँधियों से अंधियाते

थपेड़ों से थकियाते

बादल !

तुम एक योद्धा हो

इस थार को थाम लो आकर ।


अबूझ अबोली पीड़ा इसकी

मूक दर्द के साक्षी हम हैं

पपड़ाती - सी देह झुरी - सी

शुष्क कंठ अकड़ाए - से

दीर्घ प्रतीक्षा के झूले में

श्लथ लेती प्राण - शून्य

तुझ बिन सारे सुख सूखे ।


रे बादल !

पान करा दे पौरुष अपना

इसकी उजड़ी मांग सजा

फिर फूटे सुवास गर्भ से इसके

नैनों से तृप्ति के नीर बहें

हे बादल !

तू प्रतीक है

पुरुषत्व का , पुंसत्व का ।

गुरुवार, 27 मई 2010

हम थार के पानी हैं


थार के पानी हैं हम

बहुत गहरी हैं

जड़ें हमारी

बहुत गहरी हैं

हमारी जिजीविषाएँ

पानी बहुत गहरा है

फिर भी ।


नानी ने सुनाई

पानी की कहानी

दादी ने बताई

पानी की कहानी

हम बड़े हुए

सुनते पानी की कहानी

अब समझे हैं

ये कहानी तो हमारी है

हम थार के पानी हैं ।


क्षितिज तक जाती है

हमारी बणी-ठणी

एक घडले नीर के लिए

अपने पाँवों में

दूरियों के

मोटे कड़ले पहन कर

हम अमूल्य हैं

हम थार के पानी हैं ।


पानी की सुगंध

रेत में थरपा हुआ

एक शाश्वत सत्य है

जिसकी डोर

दूर आकाश में जाती है

बादलों तक

मगर...

उसकी जड़ें बहुत गहरी है ।


बहुत झीनी है

हमारी पतवार

बहुत गहरा है

मरुथल पारावार

उतरना है पार

हम थार के पानी हैं ।

मंगलवार, 25 मई 2010

प्रेम: कुछ अहसास

बादल
अक्सर पूछते हैं
मुझसे तुम्हारा पता
और हवा बेहया - सी
उन्हें सब कुछ
बता देती है।
- - - -
मेहँदियाँ आईं
रचा डाले मेरे कोरे काग़ज़
कैसे - कैसे रंगीन , खुशबूदार
मेरा मन इतना मोरपंखी
पहले कभी न था ।
- - - -
हवाओं पर सवार होकर आईं
तुम्हारी साँसों ने
मेरे सारे पर्वत पिघला दिये
आँसुओं की नदी में
गुरूर की किश्तियाँ
डूबने लगीं.......एक - एक कर ।
- - - -
खुशबुओं ने कपड़े बदले
चाँद की अटारी जा बैठीं
मेरी छत से
तुम्हारी मुंडेर तक
रोशनी की एक
बन्दनवार बांध डाली
सूरज निकलने तक
नज़ारे बड़े हसीन दिखते थे ।

शनिवार, 22 मई 2010

नरभक्षी

बाज़ार ने बड़ा उधम मचाया
बहुत उथल-पुथल की
वो भी सरे-बाज़ार
उसकी शिकायतें की गयीं
पुलिस थाने में,पुस्तकों में
पत्रिकाओं में,मंत्रालय में
पर्चे बांटे गए,चिपकाए गए
टी.वी. पर भी
उसका कड़ा विरोध
दर्ज कराया विद्वान वक्ताओं ने
और वातावरण विरोधमय हो उठा
अब उसका बचना
मुश्किल लग रहा था
लोग कह रहे थे
बस..अब बाज़ार के दिन
समझो लद गए हैं।

पर उसका क्या जो लोगों ने
बाज़ार के गले में पट्टा बांधा
और अपने दरवाज़े पर बांध लिया
वे कहते रहे , समझाते रहे
हम इसे बांध कर रखते हैं
किसी तो काट नहीं खाएगा
वो कुत्ता बड़ा सयाना लग रहा था
दरवाज़े पर बंधे कुत्ते
बड़े सुंदर नज़र आते हैं ।

लेकिन यह कोई आम कुत्ता नहीं था
नरभक्षियों की प्रजाति का था
दिखते नहीं है नरभक्षी
मगर होते अवश्य हैं
एक बार मुँह को खून लगा कि लगा
ऐसे नरभक्षी पहले कभी नहीं देखे
न हुए होंगे

और बाज़ार एक ऐसा ही नरभक्षी कुत्ता है.

बुधवार, 19 मई 2010

पहली बार

हमने अपने गिरेबान देखे
दोस्तों की आँखों में
हिकारत देखी ,
पीछे छूट गए सारे
मासूमियत के लवाजमें
उम्र का ऐसा असर
पहली बार देखा है।

तुमने अपनी शोखियाँ देखीं
दोस्तों की आँखों में
न जाने क्या देखा
सुनहरी पंख सारे
सिमटकर स्याह हो गए
उम्र का ऐसा असर
पहली बार देखा है।

रविवार, 16 मई 2010

जब से वो मशहूर हो गए ।
ख़ुद से कितना दूर हो गए ।

बाहर इतनी चमक बिखेरी
भीतर से बेनूर हो गए ।

देखा जिनको सजदे में था
इश्क हुआ मगरूर हो गए ।

घिन से चेहरे मुफ़लिसी के
दौलत आई हूर हो गए ।

ख़ुद को देखें आँख पराई
दुनिया के दस्तूर हो गए ।

शुक्रवार, 14 मई 2010

प्राणों का हवन

विरह ऐसा सघन हुआ है।
पतझर-सा मधुबन हुआ है।

अंतर्मन को भेद व्यथाएँ
विकल पोर निर्झर-पीड़ाएँ
सुप्त हुई सौरभ-क्रीड़ाएँ

प्रेम-निशा का स्वप्न मधुरम
वेदनामय रुदन हुआ है।

पल मखमल के कब के छूटे
स्पर्श रेशमी जबसे रूठे
सांस बावरी टूट,न टूटे

प्रेम-पंथ की यज्ञशाला
प्राण का यूँ हवन हुआ है।

बुधवार, 12 मई 2010

लड़कियाँ

लड़कियाँ प्रतीक्षा करती हैं
अँधेरे की
क्योंकि कई बार उन्हें
रोशनी से चिढ़ होने लगती है
उनके सपने
इतने महीन हैं
इतने रेशमी हैं
और बिलकुल लड़कियों जैसे
कि रोशनी का एक ही दंड
उन्हें चकनाचूर कर दे

अँधेरे में लडकियाँ
घर से बाहर नहीं निकलती हैं
बल्कि छत के कोने से
कुछ तारों को समेट कर
अपने बालों में टाँक लेती हैं
और बना देती हैं
खाली आसमान पर
एक रंगों भरा सुंदर चित्र

धूप में लड़कियों के चेहरे को
चिपचिपा कर देती है भीड़
जिसे रात में धोकर
आईने में उड़ेल देती हैं वो
खुद को पूरा
लेकिन रात में भी
कुछ लोगों की आँखें
चमकती हैं कुत्तों और भेड़ियों की तरह

जब से लडकियाँ विज्ञापनों में आई हैं
उनकी कीमतें बढ़ गयी हैं
हर सामान के साथ
उन्हें भी खरीदा और बेचा जाता है
अब वे मूल्यवान हैं
सो अँधेरा उनका रक्षा-कवच है

लडकियाँ प्रतीक्षा करती हैं
अँधेरे की
लेकिन उनकी चिढ़ का
कोई अंत नहीं शायद

शनिवार, 8 मई 2010

शब्द

न जाने कितनी बार
हाथ पकड़ कर तुम्हारा
तुम्हें अर्थ तक ले गया मैं
कितनी बार
तुम डूबने के डर से
धारा में उतरे ही नहीं
कितनी बार
उतरे तो
हाथ-पाँव भी मारे
पर डूब गए

तुम उलझे रहे
अभिधार्थों से व्यंग्यार्थों तक
सदा ही ठगा गया
मैं तुमसे
और छूटता गया कुछ पीछे
अनभिव्यक्त,असम्प्रेषित
सुना था..
सही सुना था
कि शब्द की सीमा होती है.

सोमवार, 3 मई 2010

स्वप्न

स्वप्न निशाचर होते हैं
इनकी किश्तियाँ
अँधेरे की
आकाशगंगाओं पे तिरतीं हैं

कुछ अँधेरा चाहिये
स्वप्न संजोने के लिये
नरम होते हैं ये,मुलायम
इनकी नरमी
अँधेरे में अधिक
महसूस की जा सकती हैं.

तमाम आकाशगंगाएँ
रीत गयी हैं अँधेरे की
और किश्तियाँ
घात पर जंग खा रही हैं.

ये अँधेरा
एकाकीपन का है
जहाँ निशाचरों के
कारवाँ निकलते हैं.

भूखे जंगल

बन्दूक के पीछे की भूख
भेद नहीं सकती
हमारे नग्नता-प्रूफ चश्मों को

हमारी भाषा और कपड़े
हमें सभ्य बनाते हैं
लेकिन
असभ्यता की हक़ीक़त
मानों दिल्ली से दूर है

भूख को बारूद बनाने की
ये भूल अपराध है
या कि
भूख ही है अपराध

बन्दूक पर बन्दूक से
और उगेंगी बंदूकें
किन्हीं जंगलों में
और हम
व्यस्त हो जाएँगे
यह सिद्ध करेंगे
कि भूखे जंगल अपराधी हैं.