सोमवार, 31 मई 2010

बादल


बादल !

तुम एक आस का टुकड़ा हो

मन मारी मरुधरा के लिये

जैसे सदियाँ बीत गई हों

लू से लोहा लेते

आँधियों से अंधियाते

थपेड़ों से थकियाते

बादल !

तुम एक योद्धा हो

इस थार को थाम लो आकर ।


अबूझ अबोली पीड़ा इसकी

मूक दर्द के साक्षी हम हैं

पपड़ाती - सी देह झुरी - सी

शुष्क कंठ अकड़ाए - से

दीर्घ प्रतीक्षा के झूले में

श्लथ लेती प्राण - शून्य

तुझ बिन सारे सुख सूखे ।


रे बादल !

पान करा दे पौरुष अपना

इसकी उजड़ी मांग सजा

फिर फूटे सुवास गर्भ से इसके

नैनों से तृप्ति के नीर बहें

हे बादल !

तू प्रतीक है

पुरुषत्व का , पुंसत्व का ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बादल !

    तुम एक योद्धा हो

    इस थार को थाम लो आकर ।
    bahut hi gahre khyaal

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  2. बादल !

    तुम एक आस का टुकड़ा हो

    इस थार को थाम लो आकर ।

    प्यारे ब्लॉग में सुन्दर रचनाएँ...हार्दिक बधाई

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  3. रे बादल !

    पान करा दे पौरुष अपना

    इसकी उजड़ी मांग सजा

    फिर फूटे सुवास गर्भ से इसके

    नैनों से तृप्ति के नीर बहें

    वाह ...राजस्थान में रह कर सूखी धरती के स्त्रीत्व को बदल के माध्यम से खूब शृंगारा आपने ......

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