शनिवार, 8 मई 2010

शब्द

न जाने कितनी बार
हाथ पकड़ कर तुम्हारा
तुम्हें अर्थ तक ले गया मैं
कितनी बार
तुम डूबने के डर से
धारा में उतरे ही नहीं
कितनी बार
उतरे तो
हाथ-पाँव भी मारे
पर डूब गए

तुम उलझे रहे
अभिधार्थों से व्यंग्यार्थों तक
सदा ही ठगा गया
मैं तुमसे
और छूटता गया कुछ पीछे
अनभिव्यक्त,असम्प्रेषित
सुना था..
सही सुना था
कि शब्द की सीमा होती है.

4 टिप्‍पणियां:

  1. तुम उलझे रहे
    अभिधार्थों से व्यंग्यार्थों तक
    सदा ही ठगा गया
    मैं तुमसे
    और छूटता गया कुछ पीछे
    अनभिव्यक्त,असम्प्रेषित
    सुना था..
    सही सुना था
    कि शब्द की सीमा होती है.

    सुंदर....!!

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  2. मनभावन इन कविताओं के लिए बधाई और शुभकामनाएं ।

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