बीकानेर की एक धुल भरी गरम
उदास शाम है यह
छड़े-बिछड़े रूँख रेत के बोझ से दबे
कंधे लटकाए खड़े हैं
शहर भर की आँखों में
एक निष्क्रिय प्यास है
इतिहास के खंडहरों में फड़फडाता है एक कबूतर
आकाश कुछ बेचैन-सा करवट बदलता है
काँख में दबा किला कसमसाता है
चौड़े सीने और लम्बी बाँहों वाली
ये पुरानी दीवारें
अपनी आँखों में अंगारे लिए घूरती हैं
सर्किलों और सड़कों को
जहाँ पान और ज़र्दे से सने कोने
फूली साँस लिए अटके हैं
धुल की किरकिराती गोद में
किसी योगी के कमण्डल से ढुलक कर
श्राप की अंजुरी से छिटकी
जल की बूँद-सा
अवाक है लेकिन
जबड़ों तक मुस्कुराता है
ये शहर
शहर भर की आँखों में
जवाब देंहटाएंएक निष्क्रिय प्यास है
इतिहास के खंडहरों में फड़फडाता है एक कबूतर
आकाश कुछ बेचैन-सा करवट बदलता है
kitni sukshmta hai is vyakhya me
एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
जवाब देंहटाएंवाह ! वाह !! वाह !!
जवाब देंहटाएंशानदार एवम जानदार रचना !
बधाई हो !
प्रियवर चैन सिंह शेखावत जी
जवाब देंहटाएंसादर सस्नेहाभिवादन !
मेरे शहर की शान ( ? :) ) में लिखी कविता बहुत प्रभावशाली है ...
शहर भर की आँखों में
एक निष्क्रिय प्यास है
...पान और ज़र्दे से सने कोने
फूली साँस लिए अटके हैं
पाटों पर बिना थके - उकताए दसियों घंटों ताश खेलते लोगों को आप भूल गए :)
... और हर कहीं जड़ें जमाया जातिवाद और लोबिंग भी तो यहाँ की ख़ास पहचान है ...
विलंब से आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूं .
मेरी ५०वी पोस्ट पर आपकी प्रतीक्षा है...
♥ हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार