
हजारों साल बीते
तेरी एक आह तक
सुनी नहीं हमने
न जाने कितने घावों को
अपनी गर्दन पे झेला
कितने 'चंद' कवियों के विरुद सुने
अगणित प्यासों से
अपनी कूबड़ सजाई
रेत के कितने घाव भरे होंगे
तेरे इन जाजमी पाँवों में ।
तू रोया नहीं शायद सदियों से
इन आँखों में देखे हैं
उमड़ते आँसुओं के बादल
रो ले अगर तू एक बार साथी
इन बादलों का बोझ हल्का हो
क्यों धरा - सा
धीर धारा है तूने ।
सँवारा जाता है
सजाया जाता है तू
बेगानों की भीड़ में
बरसती तालियाँ तुझ पर
कलेजे पर मगर मरहम
लगाकर कौन पुचकारा ?
अकालों के चन्दन
तेरे माथे पे फबते हैं
कराहों के ककहरे
मगर सीखे नहीं अब तक
तू धन्य रे भागी
मायड़ का मान रखें कैसे
सीखे तो कोई तुझसे सीखे
सदियों सूर-सा विचरा
फलेंगी शुभकामनाएँ भी
निर्मल ह्रदय का प्रार्थी है तू
कि सच्चा सारथी है तू
मगर अब ..
थका -थका सा दिखता है तू
थमा-थमा सा नज़र आता है
रेत के इस अविरल प्रवाह में
हकबका सा नज़र आता है ।
ले आ !
सजाऊं गोरबंद तुझ पर
गले में दाल दूँ भुज -माला
कि मुझसे बेहतर कौन
समझे जो तेरी पीड़ को साथी !