
एक रोहिड़े का फूल है
गर्मियाँ कसमसाती हैं
भीतर कहीं गहरे तो
रोहिड़ा सुर्ख़ सा सिर तान
धरा पर कौंध उठता है
आस पास जब
सारी निशानियों के पर उतर जाते हैं
अस्तित्वों के ढूह
शुष्क और बंजर नज़र आते हैं
न मालूम
कहाँ से शेष बची कुछ लालिमा को
यत्न से निथारकर
रोहिड़ा
तड़पती प्रेमिका की धरती पर
प्रेम के दो फूल टांक देता है
रोहिड़े का यह फूल
मेरी कविता है
हवा की बेचैनियाँ
जब करवट बदलती हैं
ठन्डे आकाश की बाँहों में
अंगड़ाई लेने लगती है जब
बादलों की तप्त अभिलाषाएँ
झुलसती आँख में आँसू सी
कविता मुस्कुराती है
ठीक वैसे ही
धरती की पथराई प्यास के सीने पर
धर कर अपने पाँव
उगते सूरज का मुखौटा पहन
गर्मियों की भीड़ में एक अकेला
रोहिड़ा ही है
जो कविता की तरह
रेत के चेहरे पर छप जाता है ।