बुधवार, 28 सितंबर 2011

एक दिन

खोलता हूँ आँखें
हवा के लिहाफ में
हर रोज़ सुबह-सुबह
दिन किसी बच्चे सा मुस्कुराता है

धूप की बुढ़िया चली आती है
पूरब के किस देस से जाने
गठरी लादे काँधे
दिन भर का बोझ

चुभती है दुपहरी की किरचें
सड़क की आँखों में
किरकिराती हैं

आखिरी बस की तरह लदी-पदी शाम
निकल जाती है
हिचकोले खाती सी