रविवार, 27 जून 2010

नमी कायम है


सब अपनी अपनी लय में गाते हैं

तुम भी गाओ

यह गीत

अलापो चाहे

या फिर टेक लो

साज सजे तो सजाओ

लेकिन इस गीत को गाओ

उगे हों भले ही

कंठ में

शूलों के बाड़े

या फिर रोप जाता हो कोई

रेत रंगे आकाश में

अँधेरे की

पंखों वाली कीड़ियों के बीज

सुर ताल के

इस अकाल में भी

शब्दों की नमी

अभी कायम है बराबर

तुम अपनी जड़ों से

पूछकर देखो

दो एक पुरानी धुनें

बची होंगी अवश्य

उन्हीं को सींचो

सींचकर साधो

बहुत बासी नहीं हुआ अभी

ये गीत जीवन का ।

मंगलवार, 22 जून 2010

ऊँट के प्रति


हजारों साल बीते

तेरी एक आह तक

सुनी नहीं हमने

न जाने कितने घावों को

अपनी गर्दन पे झेला

कितने 'चंद' कवियों के विरुद सुने

अगणित प्यासों से

अपनी कूबड़ सजाई

रेत के कितने घाव भरे होंगे

तेरे इन जाजमी पाँवों में ।


तू रोया नहीं शायद सदियों से

इन आँखों में देखे हैं

उमड़ते आँसुओं के बादल

रो ले अगर तू एक बार साथी

इन बादलों का बोझ हल्का हो

क्यों धरा - सा

धीर धारा है तूने ।


सँवारा जाता है

सजाया जाता है तू

बेगानों की भीड़ में

बरसती तालियाँ तुझ पर

कलेजे पर मगर मरहम

लगाकर कौन पुचकारा ?


अकालों के चन्दन

तेरे माथे पे फबते हैं

कराहों के ककहरे

मगर सीखे नहीं अब तक

तू धन्य रे भागी

मायड़ का मान रखें कैसे

सीखे तो कोई तुझसे सीखे

सदियों सूर-सा विचरा

फलेंगी शुभकामनाएँ भी

निर्मल ह्रदय का प्रार्थी है तू

कि सच्चा सारथी है तू

मगर अब ..

थका -थका सा दिखता है तू

थमा-थमा सा नज़र आता है

रेत के इस अविरल प्रवाह में

हकबका सा नज़र आता है ।


ले आ !

सजाऊं गोरबंद तुझ पर

गले में दाल दूँ भुज -माला
कि मुझसे बेहतर कौन

समझे जो तेरी पीड़ को साथी !

शुक्रवार, 18 जून 2010

सांझ


छिपते - छिपाते सांझ आ गई

किरणों ने आख़िरी बार चूमा

मंदिर के शिखर को

और सीढ़ियाँ उतर गईं ।


गाँव भर का धुआँ

धान की धुन में रमा

रोटियों की चटर- पटर से

घर - घर में कोलाहल

चाँद ने पोखर से पूछा

अपनी सूरत निहार लूँ !


धीरे - धीरे चाँद ने

पथ बुहार दिए

अभिसारिकाओं के

अँधेरे ने देखा लजाती सांझ को

और मुस्काने लगा

होंठ काटती सांझ

समा गई चुपके से

अँधेरे की भुजाओं में ।


आकाश से परियों का टोला उतरा

पूरे गाँव में पसर गया।